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श्री संवेगरंगशाला
परिकर्म द्वार-शिक्षा द्वार-साधु और गृहस्थ का सामान्य आचार धर्म
सदा साधर्मिक वात्सल्य में, जीर्ण मंदिरों के उद्धार कराने में, और परनिन्दा के त्याग में प्रयत्न करें। तथा निद्रा पूरी होते ही पंचपरमेष्ठी महामंगल का स्मरण करके अपनी स्थिति अनुसार धर्म जागरण पूर्वक उठकर लघुशंकादि समयोचित करे फिर गृह मंदिर में संक्षेप से श्री जिन प्रतिमाओं को वंदन करके साधु की वसतिउपाश्रय में जाये और वहाँ आवश्यक प्रतिक्रमण आदि करें। इस प्रकार करने से - (१) श्री जिनेश्वर की आज्ञा का सम्यग् पालन, (२) गुरु परतन्त्रता (विनय), (३) सूत्र - अर्थ का विशेष ज्ञान, (४) यथास्थित सामाचारी (आचार) में कुशलता, (५) अशुद्ध मिथ्यात्व बुद्धि का नाश और गुरु साक्षी में धर्म क्रिया करने से सम्पूर्ण विधि का पालन होता है। अथवा साधुओं का योग न हो या वसति उपाश्रय में जगह का अभाव आदि कारण से गुरु आज्ञा से पौषधशालादि में भी करें, फिर समय अनुसार स्वाध्याय करके नये सूत्र का भी अभ्यास करें, फिर वहाँ से निकलकर द्रव्य भाव से निर्मल बनकर प्रथम अपने घर में ही नित्य सूत्र विधिपूर्वक चैत्यवंदन और वैभव के अनुसार पूजा करें। उसके बाद वैरागी उत्तम श्रावक यदि उसे ऐसा कोई घर कार्य न हो तो उसी समय ही शरीर शुद्धि स्नान करके उत्तम श्रृंगार सजकर, पुष्पों आदि से विविध पूजा की सामग्री के समूह को हाथ में उठाकर परिवार को साथ लेकर श्री जिनमंदिर में जाये और पाँच प्रकार के अभिगम का पालन करते हुए विनय पूर्वक वहाँ प्रवेश कर विधिपूर्वक सम्यक् श्रेष्ठ पूजा करें। फिर जय वीयराय तक सम्पूर्ण देववंदन करें। फिर किसी कारण से प्रातः सामायिक आदि साधु के पास नहीं करने से, जैन भवन के मण्डप में, अपने घर में, अथवा पौषधशाला में सामायिक प्रतिक्रमण आदि की क्रिया की हो तो साधुओं के पास जाकर वंदनपूर्वक सम्यक् पच्चक्खाण करें और समय अनुसार श्री जिनवाणी का श्रवण करें। बाल मुनि, ग्लान साधु आदि साधुओं के विषय में सुखशाता आदि पूछे और उनके करने योग्य औषधादि समग्र कार्य यथायोग्य भक्तिपूर्वक पूर्ण करें। उसके बाद आजीविका के लिए कुल क्रम के अनुसार जिससे लोग में निन्दा न हो और धर्म की निन्दा न हो इस प्रकार व्यापार करें। भोजन के समय घर आकर स्नानादि करके श्री संघ के मंदिर में पुष्पादि से अंगपूजा, नैवद्यादि से अग्रपूजा, वस्त्रादि से सत्कार पूजा और उत्तम भाववाही स्तोत्रों से भावपूजा इस तरह चार प्रकार की पूजा द्वारा विधिपूर्वक श्री जिनेश्वर प्रभु की प्रतिमा की सम्यग् रूप में पूजा करें फिर साधु के पास जाकर ऐसी विनती करें कि - 'हे भगवंत ! आप मुझ ऊपर अनुग्रह करें।' जगजीव वत्सल आप अशनादि वस्तुओं को ग्रहण कर, संसार रूपी कुएं में गिरते हुए मुझे हाथ का सहारा दें। फिर साधुओं को साथ ले चलें, चलते समय साधु के पीछे-पीछे चलें। इस तरह घर के द्वार तक जाये इस समय दूसरे स्वजन भी दरवाजे से बाहर सामने आये वे सभी उनको वंदन करें, फिर दानरूचि की श्रद्धावाला श्रावक भी गुरु के पैरों की प्रमार्जना करें, और प्रमार्जन की हुई भूमि पर आसन पर बैठने की विनती करके विधिपूर्वक संविभाग करे (दान दें) फिर वंदनपूर्वक विदा कर वापिस घर आकर पितादि को भोजन करवाकर पशु, नौकर आदि की भी चिन्ता - सम्भाल लेकर उनके योग्य खाने की व्यवस्था कर, अन्य गाँव से आये हुए श्रावकों की भी चिन्ता कर (व्यवस्था) और बीमार व्यक्तियों की सार संभालकर फिर उचित स्थान पर उचित आसन पर बैठकर, अपने पच्चक्खाण को यादकर पच्चक्खाण को पारें (पूर्ण करें) श्री नवकार मंत्र को गिनकर भोजन करें। भोजन करने के बाद विधिपूर्वक घर मंदिर की प्रतिमाजी के आगे बैठकर चैत्यवंदन करके तिविहार आदि पच्चक्खान करें। फिर समय अनुसार स्वाध्याय और कुछ नया अभ्यासकर, पुनः आजीविका के लिए अनिंदनीय व्यापार करें, शाम के समय में पुनः अपने घर मंदिर में श्री जिनेश्वर की पूजा करके उत्तम स्तुति, स्तोत्रपूर्वक वंदन भी करे, फिर संघ के श्री जिनमंदिर में जाकर जिनबिम्बों की पूजाकर चैत्यवंदन करे और प्रातःकाल में कहा था उस प्रकार शाम को भी सामायिक प्रतिक्रमणादि करें। वह प्रतिक्रमणादि यदि साधु नहीं करे तो फिर साधु के उपाश्रय में जाये वहाँ वंदना आलोचना और क्षमापना करके पच्चक्खाण स्वीकार करें
के पास
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