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परिकर्म द्वार - शिक्षा द्वार-साधु का विशिष्ट आचार धर्म
श्री संवेगरंगशाला और समय अनुसार धर्मशास्त्र का श्रवण करे, साधुओं की शरीर सेवा आदि भक्तिपूर्वक विधि से करें । संदिग्ध शब्दों का अर्थ पूछकर और श्रावक वर्ग का भी औचित्यकर घर जायें विधिपूर्वक शयन करें, और देव गुरु का स्मरण करें। उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य का पालन करें अथवा मैथुन का अमुक समय आदि नियम पूर्वक प्रमाण करें, फिर कंदर्प आदि का त्यागकर के एकान्त स्थान में शयन करें ।। १५५८।।
ऐसा होने पर भी गाढ़ मोहोदय के वश यदि किसी तरह अधम योग कार्य में प्रवृत्ति करें तो भी मोह का विकार वेग शान्त होने के बाद भावपूर्वक इस प्रकार चिन्तन-मनन करें - मोह दुःख और सर्व अनर्थों का मूल है इसके वश में पड़ा हुआ प्राणी हित को अहित मानता है। और जिसके वश पड़ा हुआ मनुष्य स्त्रियों के असार भी मुख आदि को चन्द्र आदि की उपमा देता है। उस मोह को धिक्कार हो । स्त्री शरीर का वास्तविक स्वरूप का इस प्रकार चिंतन करे कि जिससे मोह शत्रु को जीतने से संवेग का आनन्द उछले
साथ रहना,
वह इस प्रकार "स्त्रियों का जो मुख चन्द्र की कान्ति समान मनोहर कहलाता है, परन्तु वह गन्दा मैल का झरना ( दो चक्षु, दो कान, दो नाक और एक मुख रूप ) सात स्रोत से युक्त हैं बड़े और गोल स्तन मांस से भरा हुआ पिंड है, पेट अशुचि की पेटी है और शेष शरीर भी मांस हड्डी और नसों की रचना मात्र है। तथा शरीर स्वभाव से ही दुर्गंधमय मैल से भरा हुआ, मलिन और नाश होने वाला है। प्रकृति से ही अधोगति का द्वार, घृणाजनक और तिरस्कार करने योग्य है। और जो गुह्य विभाग है वह भी अति लज्जा उत्पन्न कराने वाला, अनिष्ट रूप होने से उसे ढांकने की जरूरत पड़ती है, फिर भी उसमें जो मोह करता है तो खेद की बात है कि वह मनुष्य अन्य कौन से निमित्त द्वारा वैराग्य प्राप्त करेगा? ऐसे दोष वाली स्त्रियों के भोग में जो वैरागी है वे ही निश्चय से जन्म, जरा और मरण को तिलाञ्जली देते हैं। इस तरह जिस निमित्त से जीवन में गुणघात होता हो उसके प्रतिपक्ष को, प्रथम और अंतिम रात्री के समय में सम्यग् रूप से चिंतन-मनन करें, विशेष क्या कहें? श्री तीर्थंकर की सेवा, पंचविध आचार रूपी धन वाले गुरु की भक्ति, सुविहित साधुजन की सेवा, समान या अधिक गुणीजनों के नये नये गुणों को प्राप्त करना, श्रेष्ठ और अति श्रेष्ठ नये-नये श्रुत का अभ्यास करना, अपूर्व अर्थ का ज्ञान और नयी-नयी हित शिक्षा प्राप्त करनी, सम्यक्त्व गुण की विशुद्धि करनी, यथाग्रहित व्रतों में अतिचार नहीं लगाना, स्वीकार किये धर्म रूपी गुणों का विरोध न हो इस तरह घर कार्य करना । धर्म में ही धन की बुद्धि करना, साधर्मिकों में ही गाढ़ राग रखना, और शास्त्रकथित विधि का पालन करते हुए अतिथि को दान देने के बाद शेष रहा भोजन करना। इस लोक के लौकिक कार्यों में शिथिलता - अनादर, परलोक की आराधना में एकरसता आदर, चारित्र गुण में लोलुपता, लोकापवाद हो ऐसे कार्यों में भीरुता, और संसार - मोक्ष के वास्तविक गुण दोष की भावना के अनुसार प्रत्येक प्रसंग पर सम्यक्तया परम संवेग रस का अनुभव करना । सर्व कार्य विधिपूर्वक करना। श्री जैनशासन द्वारा परम शमरस की प्राप्ति और संवेग का सारभूत सामायिक, स्वाध्याय तथा ध्यान एकाग्रता लाना, इत्यादि उत्तर गुण समूह की सम्यग् आराधना करने में अतृप्त रहते हुए बुद्धिमान कुलिन गृहस्थ समय को व्यतीत करें, इससे जैसे कोई धीरे-धीरे कदम आगे बढ़ाते महान पर्वत पर चढ़ जाता है वैसे धीर पुरुष आराधना रूपी पर्वत पर सम्यक् समारूढ़ हो जाता है। इस प्रकार धर्म के अर्थी गृहस्थ का विशेष आचार यहाँ तक कहा हैं।"
अब साधु सम्बन्धी विशेष आसेवन शिक्षा संक्षेप में कहते हैं ।। १५७८।। :साधु का विशिष्ट आचार धर्म :
सिद्धान्त के ज्ञाताओं ने कही हुई केवल साधु की जो प्रतिदिन की क्रिया है उसे ही विशेष आसेवन क्रिया
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