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श्री संवेगरंगशाला
परिकम द्वार-विनय नामक चौथा द्वार भी कहते हैं वह इस प्रकार जानना :- प्रतिलेखना, प्रमार्जना, भिक्षाचर्या, आलोचना, भोजन, पात्र धोना, विचार (मात्रा), स्थंडिल (ठल्ले) शुद्धि और प्रतिक्रमण करना इत्यादि। और 'इच्छाकार-मिथ्याकार' आदि उपसंपदा तक की सुविहित जन के योग्य दस प्रकार की सामाचारी का पालन करें, स्वयं अध्ययन करें, दूसरे को अध्ययन करावें, और तत्त्व का भी प्रयत्न से चिन्तन करें, यदि इस विशेष आचारों में आदर न हो तो वह मनि व्यसनी है--अर्थात् मिथ्यात्वी है। इस तरह गुण दोष की परीक्षा कर तथा ग्रहण शिक्षा रूप ज्ञान को प्राप्तकर प्रतिक्षण आसेवन शिक्षा के अनुसार सेवन करना। इस प्रकार सामान्यतया धर्म के सर्व अर्थों का पालन करना। इन अवान्तर भेदों सहित यदि दोनों प्रकार की शिक्षा कही है उससे युक्त हो तो आराधना में एक चित्तवाले का तो क्या पूछना? धर्मार्थी को भी पूर्व के आचारों के दृढ़ अभ्यास बिना इस तरह विशेष आराधना नहीं हो सकती। इस कारण से उस विशेष आराधना के अर्थों को सर्व प्रकार से जानकर, इन शिक्षाओं में प्रयत्नपूर्वक यत्न करना चाहिए। अब इस विषय में अधिक क्या लिखें?
इस तरह धर्मोपदेश से मनोहर और परिकर्म विधि आदि चार मुख्य द्वारों वाली आराधना रूपी संवेगरंगशाला के पन्द्रह अन्तर भेद द्वार वाला प्रथम परिकर्म द्वार का यह तीसरा शिक्षा द्वार भेद प्रभेदपूर्वक सम्पूर्ण हुआ। पूर्वोक्त दोनों शिक्षाओं में चतुर हो परन्तु विनय बिना आराधना कृतार्थ नहीं होती है। अतः अब विनय द्वार कहते हैं ।।१५८९।। विनय नामक चौथा द्वार :
विनय पाँच प्रकार का होता है प्रथम ज्ञान विनय, दूसरा दर्शन विनय, तीसरा चारित्र विनय, चौथा तप विनय और अंतिम पाँचवां उपचार विनय है। उसमें ज्ञान का विनय (१) काल, (२) विनय, (३) बहुमान, (४) उपधान, (५) अनिन्हवण तथा (६) व्यंजन, (७) अर्थ और (८) तदुभय इस तरह आठ प्रकार का है। दर्शन विनय भी (१) निःशंकित, (२) निष्कांक्षित, (३) निर्वितिगिच्छा, (४) अमूढ़ दृष्टि, (५) उपबृंहणा, (६) स्थिरीकरण, (७) वात्सल्य और (८) प्रभावना। ये आठ प्रकार से जानना। प्रणिधानपूर्वक जो तीन गुप्ति और पाँच समितियों के आश्रित उद्यम करना वह आठ प्रकार का चारित्र विनय है। तप में तथा तप के रागी तपस्वियों में भक्तिभाव, दूसरे उन तपस्वियों की हीलना करने का त्याग और शक्ति अनुसार तप का उद्यम करना। यह तप विनय जानना।
औपचारिक विनय :- कायिक, वाचिक और मानसिक यह तीन प्रकार का है। वह प्रत्येक भी प्रत्यक्ष और परोक्ष इस तरह दो भेद हैं। इसमें गुण वाले के दर्शनमात्र से भी खड़ा होना, सात-आठ कदम आने वाले के सामने जाना, विनयपूर्वक दो हाथ जोड़कर अंजलि करना, उनके पैरों का प्रमार्जन करना, आसन देना और उनके बैठने के बाद उचित स्थान पर स्वयं बैठना इत्यादि कायिक विनय जानना। अधिक ज्ञानी का गौरव बढ़े ऐसे वचन कहकर उनके गुणों का कीर्तन करना वह वाचिक विनय होता है और उनके विषय अकुशल मन का निरोध और कुशल मन की उदीरणा करनी वह मानसिक विनय जानना ।।१६०० ।। उसमें आसन देना इत्यादि प्रत्यक्ष किया जाता है इसलिए यह प्रत्यक्ष विनय और गुरु के विरह-अभाव में भी उन्होंने कही हुई विधि में प्रवृत्ति करना वह परोक्ष विनय कहलाता है ।।१६००।।
इस प्रकार अनेक भेद वाले विनय को अच्छी तरह जानकर आराधना के अभिलाषी धीर पुरुष उस विनय का सम्यग् आचरण करें-क्योंकि जिसके पास से विद्या पढ़नी हो या जिनके पास अध्ययन किया हो उन 1. १. इच्छाकार, २. मिथ्याकार, ३. तथाकार, ४. आवश्यकी, ५. नैषेधिकी, ६. आपृच्छना, ७. प्रतिपृच्छना, ८. छंदणा, ६. निमंत्रणा, १०.
उपसंपदा। क्रम में फेर भी है।
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