________________
श्री संवेगरंगशाला
परिकम दार-लिंग नामक दूसरा द्वार-कुलबालक मुनि की कथा मुशलयुद्ध, शिलायुद्ध और कंटकयुद्ध करने से उसकी चतुरंग सेना बहुत खत्म हुई। फिर नगर का घेराव डालकर अशोकचन्द्र बहुत समय पड़ा रहा, परन्तु ऊँचे किले से शोभता वह नगर किसी तरह से खण्डित नहीं हुआ। जब नगरी तोड़ने में असमर्थ बना राजा शोकातुर हुआ तब देवी की आराधना की देवी ने कहा कि जब कुल वालक साधु मागधिका वेश्या का सेवन करेगा तब राजा अशोकचन्द्र वैशाली नगरी को काबू करेगा।।१२८३।। कामरूपी संपुट से अमृत के समान उन शब्दों का पान करके हर्ष से प्रसन्न मुख हुए राजा ने लोगों को उस साधु के विषय में पूछा, तब किसी तरह लोगों द्वारा उसे नदी किनारे रहा हुआ जानकर वेश्याओं में अग्रसर मागधिका वेश्या को बुलाकर कहा कि-हे भद्रे! तूं कूलवालक साधु को यहाँ ले आ। विनय से विनम्र बनकर 'ऐसा करूँगी' ऐसा उसने स्वीकार किया।
मागधिका वेश्या कपटी श्राविका बनकर कई व्यक्तियों को साथ लेकर उस स्थान पर गयी, वहाँ उसने साधु को वंदनकर विनयपूर्वक इस प्रकार कहा-घर का नाथ पतिदेव स्वर्गवास होने से जिनमंदिरों में वंदन करती यात्रार्थ घूमती फिरती में आपका नाम सुनकर यहाँ वंदन के लिए आयी हूँ। इससे हे मुनिवर! भिक्षा लेकर मुझे प्रसन्न करो क्योंकि तुम्हारे जैसे सुपात्र में अल्पदान भी शीघ्र स्वर्ग और मोक्ष के सुखों का कारण रूप होता है। इस तरह बहुत कहने से वह कुलवालक भिक्षार्थ आया, और उसने दुष्ट द्रव्य से संयुक्त लड्डु दिये, वह खाते ही उस समय उसे बदहजमी होने से बहुत अतिसार रोग हो गया, इससे अति निर्बल होने से करवट बदलने आदि में भी अशक्त हआ। वेश्या ने उससे कहा-भगवंत! उत्सर्ग अपवाद मार्ग जानती हैं. गुरु-स्वामी और बन्ध तुल्य मानकर आपके रोगों को प्रासुक द्रव्यों से कुछ प्रतिकार करूँगी, इसमें भी यदि कुछ असंयम हो जाये तो शरीर स्वस्थ होने के बाद इस विषय में प्रायश्चित्त कर देना। अतः हे भगवंत! आप मुझे आज्ञा दीजिए, जिससे आपश्री की वैयावच्य (सेवा) करूँ। प्रयत्नपूर्वक आत्मा-जीवन की रक्षा करनी चाहिए, कारण शास्त्र में इस प्रकार कहा है (ओघ नियुक्ति गाथा ४४) कि 'सर्वत्र संयम की रक्षा करनी चाहिए और किसी विशेष कारण से संयम को गौण करके भी जीवन की रक्षा करते साधु अतिक्रम आदि दोष सेवन करे उसकी विशुद्धि हो जाती है, उससे अविरति नहीं हो जाती।' इस प्रकार सिद्धान्त के अभिप्राय के साररूप उसके वचन सुनकर उसने मागधिका को आज्ञा दी, इससे प्रसन्न होकर उसके पास रहकर सेवा करती, हमेशा शरीर को मसलना, धोना, बैठाना आदि सब क्रियाएँ करने लगी। कई दिन इस तरह पालन करके उसने औषध के प्रयोग से उस तपस्वी का शरीर लीला मात्र से स्वस्थ कर दिया। उसके बाद अति उद्भट श्रृंगार वाले उत्तम वेश धारणकर सुंदर अंगवाली उसने एक दिन विकारपूर्वक मुनि से कहा ।।१३०० ।।
हे प्राणनाथ! मेरी बात सुनों! गाढ़ राग वाली होने से प्रिय और सुख समूह की निधिरूप मेरा आप सेवन करें, अब यह दुष्कर तपस्या को छोड़ दें, प्रतिदिन शरीर का शोषण करने वाला वैरी रूप यह तप करने से भी क्या लाभ है? मोगरे की कली समान दाँत वाली मुझे प्राप्त की है वह! हे पतिदेव! आपने तप का ही फल प्राप्त किया है। अथवा दुष्ट श्वापद आदि समूह में दुःखपूर्वक रहने योग्य इस अरण्य का तुमने क्यों आश्रय लिया है? चलो रति के समान स्त्रियों से भरे हुए सुंदर मनोहर नगर में चलें। अरे भोले! तूं धोखेबाजी से ठगा गया है कि जिससे मस्तक मूंडाकर यहाँ रहता है। तूं हमेशा मेरे भवन में मेरे साथ क्यों विलास नहीं करता? हे नाथ! तेरे थोड़े विरह में भी निश्चित ही मेरे प्राण निकल जाते हैं। अतः चलो साथ ही चलें और दूर-दूर देश में रहे तीर्थों को वंदन नमस्कार करेंगे। इससे तेरे भी और मेरे भी समस्त पाप क्षय हो जायेंगे। इसलिए हे नाथ! जब तक इस
1. दूसरे स्थान पर कथाओं में दो प्रकार के युद्ध का वर्णन आता है।
60 Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org