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परिवर्म द्वार-अर्ह नानक अंतर दार-वंकचूल की कथा
'श्री संवेगरंगशाला तरंगों की आवाज के बहाने से मानो ग्रीष्म ऋतु को हाँककर निकाल रहे हों इस तरह महान् नदियाँ पर्वतों के शिखर पर से गिर रही थीं। उस वर्षा में बहुत जल गिरने से पृथ्वी मण्डल में सर्वत्र मार्ग विषम हो गये थे, अतः हताश हुए मुसाफिर मानो अपनी पत्नी का स्मरण हो जाने से वापिस लौटते हों, इस तरह दूर या बीच से वापिस आ रहे थे। इससे ऐसा स्वरूप वाला वर्षाकाल देखकर आचार्य श्री ने सद्गुणिओं में श्रेष्ठ साधुओं से कहा किभो महानुभावों! यह पृथ्वी उगे हुए तृण के अंकुर वाली तथा कंथुवा, चींटी आदि बहुत से जीवों वाली हो गयी है। इसलिए यहाँ से आगे जाना योग्य नहीं है, क्योंकि श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा है कि-इस दीक्षा में जीवदया धर्म का सार है उसके अभाव में दष्ट राजा की सेवा के समान दीक्षा निरर्थक बनती है। इस कारण से ही वर्षा ऋतु में महामुनि कछुए के समान अंगोपांग के व्यापार को अत्यन्त संकोचकर एक स्थान पर रहते हैं। अतः इस पल्ली में जायें, क्योंकि निश्चय ही यहाँ पर वंकचूल नामक विमलयश राजा का पुत्र भिल्लों का अधिपति बना है, ऐसा सुना है। उसके पास में वसति की याचना कर यहाँ वर्षा काल व्यीतत करें और इस तरह चारित्र का निष्कलंक पालन करें। साधुओं ने वह मान्य किया फिर वे वंकचूल के घर गये और गर्व से ऊँची गर्दन वाले उसने कुछ अल्पमात्र नमस्कार किया। उसके बाद धर्मलाभ रूपी आशिष देकर आचार्यश्रीजी ने कहा-अहो भाग्यशाली! साथियों से अलग पड़े और वर्षा काल में आगे बढ़ने में असमर्थ होने से हम 'श्री जिन शासन रूपी सरोवर में राजहंस समान विमलयश राजा के पुत्र तुम यहाँ हो' यह सुनकर यहाँ आये हैं। इसलिए हे महाभाग! कोई वसति रहने के लिए दो, जिससे चातुर्मास यहाँ रहे, क्योंकि अब साधुओं को एक कदम भी चलना योग्य नहीं है।
पाप से घिरा हुआ अति पापी वंकचूल बोला-हे भगवंत! अनार्यों की संगति से दोष प्रकट होता है इसलिए आपको यहां रहना योग्य नहीं है, क्योंकि यहाँ मांसाहारी, हिंसा करने में तल्लीन मनवाले, क्रूर अनार्य, क्षुद्र लोग रहते हैं, साधु को उसका परिचय करना भी योग्य नहीं है। तब सूरिजी ने कहा-अहो महाभाग! इस विषय में लोग कैसे भी हों वह नहीं देखना है हमें तो सर्व प्रयत्नों से जीवों का रक्षण करना ही चाहिए। केंचुएँ, चींटी के समूह से व्याप्त और नयी वनस्पति तथा जल से भरी हुई भूमि पर चलने से साधु धर्म से भ्रष्ट होते हैं। इसलिए निवास स्थान दो और हमारे धर्म में सहायक बनों!
उत्तमकुलप्पसूयाण दूसणं पत्थणाभंगो ।।९००।। उत्तम कुल में जन्मे हुए को प्रार्थना भंग करना वह दूषण
यह सुनकर दोनों हाथ जोड़कर राजपुत्र ने कहा कि-हे भगवंत! वसति दूंगा, परंतु निश्चय रूप से यहाँ रहकर आप मेरे आदमियों को अल्प भी धर्म सम्बन्धी बात नहीं कह सकते, केवल अपने ही कार्य में प्रयत्न करना। क्योंकि तुम्हारे धर्म में सर्व जीवों की सर्व प्रकार से रक्षा करनी, असत्य वचन का त्याग, पर-धन और परस्त्री का त्याग है, मद्य, सुरा और मांस भक्षण का त्याग है तथा आप हमेशा इन्द्रियों का दमन करने को कहते हैं। इस प्रकार कहने से तो निश्चय ही हमारा परिवार भूखों मर जायगा। उसे सुनकर आह हा! आश्चर्यपूर्वक सोचा कि-यह वंकचल दुःसंगति में फंसा हआ होने पर भी अपने कल क्रम के सम्बन्धी जिन धर्म रूपी सर्वस्व को किसी तरह भूला नहीं है। ऐसा चिन्तन करते आचार्यश्री ने उसकी बात स्वीकार की, क्योंकि मनुष्य धर्म से जब
अति विमुख हो तब उसकी उपेक्षा करनी ही योग्य है। उसके बाद वंकचूल ने उनको नमस्कार करके रहने के लिए स्थान दिया और स्वाध्याय, ध्यान में अतिरक्त वे साधु भगवंत वहीं रहें। सद्गुरु के पास रहकर वे महानुभाव मुनिवर विविध दुष्कर श्रेष्ठ तपस्या करते थे। नय-सप्तभंगी से गहन आगम का अभ्यास करते थे। उसके अर्थ का परावर्तन करते थे, बारह भावनाओं का चिंतन करते और व्रतों का निरतिचार पालन करते थे।
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