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परिकर्मद्वार-अर्ह नामक अंतरद्वार-वंकचूल की कथा
श्री संवेगरंगशाला में जाने को धीरे-धीरे चले। फिर पाप कार्यों में हमेशा चपल इन्द्रियों वाला, विविध सैंकड़ों व्यसनों से युक्त वह भिल्लपति दिन पूर्ण करने लगा ।।९३९।।
अन्य किसी दिन सभा मण्डप में बैठे वंकचूल ने भिल्लों को कहा कि बहुत समय से यहाँ व्यापार बिना के मेरे दिन जा रहे हैं तो हे पुरुषों! पुर, नगर या गाँव आदि जो लूटने योग्य हों उसे सर्वत्र खोजकर आओ! जिससे सर्व कार्य छोड़कर उसे लूटने के लिए जायेंगे, उद्यम के बिना का पति विष्णु हो फिर भी लक्ष्मी उसे छोड़ देती है। यह सुनकर तहत्ति' कहकर आज्ञा को स्वीकारकर यथोक्त स्थानों की गुप्त रूप में खोजकर आये और उन पुरुषों ने निवेदन किया-हे नाथ! सुनो! बहुत श्रेष्ठ वस्तुओं से परिपूर्ण बड़ा सार्थवाह दो दिन के पश्चात् अमुक मार्ग पर पहुँचेगा, इसलिए उस मार्ग को रोककर उसके आने के पहले आप वहाँ रहें तो अल्पकाल में यथेच्छ लक्ष्मी का समूह प्राप्त हो सकेगा। ऐसा सुनकर कुछ दिन का खाना लेकर अपने साथी चोरों के साथ पल्लीपति उस स्थान पर गया। परन्तु इधर वह सार्थवाह अपशुकन के दोष से मूल मार्ग छोड़कर दूसरे मार्ग से चलकर इष्ट स्थान पर पहुँच गया। भिल्लपति वंकचूल अनिमेष नेत्रों से उस मार्ग को देखता रहा, ऐसा करते लाया हुआ भोजन (पाथेय) खत्म हो गया। तब निस्तेज मुख वाला, भूख से पीड़ित, वापिस घूमकर पल्ली की ओर चला। परन्तु वहाँ से आगे बढ़ने में असमर्थ हो गया और श्रम से पीड़ित वृक्ष की शीतल छाया में नये कोमल पत्तों की शय्या में विश्राम के लिए वह सो गया। और परिवार के पुरुष चारों तरफ कंदमूल-फल लेने के लिए गये, जंगल का अवलोकन करते उन्होंने एक प्रदेश में संदर फलों के भार से नमा हआ सैंकडों डालियों से युक्त. किंपाक फल नामक एक बड़ा वृक्ष देखकर अति प्रसन्न बनें। उसके ऊपर से पके हुए पीले फलों को इच्छानुसार ग्रहण किया,
और विनयपूर्वक नमकर उन्होंने वे फल श्री वंकचूल को दिये, उसने कहा-हे भाइयों! पूर्व में कभी भी यह फल नहीं देखे हैं, देखने में फल सुन्दर है परंतु इसका नाम क्या है? उन्होंने कहा-स्वामिन्! इसका नाम हम नहीं जानते हैं, केवल पके हुए होने से श्रेष्ठ रस का अनुमान कर रहे हैं। पल्लीपति ने कहा-यदि अमृत समान हो तो भी उसका नाम जाने बिना (एवं गुण-दोष जाने बिना) इन फलों को मैं नहीं खाऊँगा। उस समय अनासक्त उस एक को छोड़कर भूख से पीड़ित शेष सभी पुरुष उस फल को खाने लगे। फिर विषयों के समान प्रारम्भ में मधुर
और परिणाम में विरस उन फलों को खाकर सोये हुए उनकी चेतना जहर के कारण नष्ट हो गयी, फिर दोनों आँखें बन्द हो गयी और अन्दर दम घुटने लगा और वे जैसे सुख शय्या में सोये हों इस तरह सोने लगे। उसके बाद उनका जीवन लेकर जैसे चोर भागता है वैसे सूर्य अस्त हो गया, और पक्षियों ने भी व्याकुल शब्द उन जीवों के मरण का जाहिर किया।
उस समय सर्वत्र पृथ्वी मण्डल को मानों कुंकुम के रस से रंग करते और चक्रवाकों को विरह से व्याकुल करते संध्या का रंग सर्वत्र फैल गया। कुलटा स्त्री के समान काली श्याम कान्तिवाले वस्त्र से शरीर ढका हो, वैसे तमाल वृक्ष के गुच्छे समान काली अंधकार की श्रेणी फैल गयी। नित्य राहु के निकलते चन्द्र में से मानो चन्द्र के टुकड़े का समूह अलग होता हैं वैसे ताराओं का समूह शीघ्र ही सर्वत्र फैल गया। उसके पश्चात् तीनों जगत को जीतने के लिए कामरूपी मुनि के शयन के लिए स्फटिक की (पटड़ा) चौकी समान निर्मल देवों के भवन प्रांगण के बीच स्थापन किये हुए सफेद सोने के पूर्ण कलश जैसा गोलाकार आकाश रूपी सरोवर में खिला हुआ सहस्र पत्र कमल जैसा लाल चंद्र मानो रात्री रूपी स्त्री का गोरोचन का बड़ा जत्था न हो ऐसे चन्द्र का भी उदय हुआ। तब जाने का समय अनुकूल जानकर पल्लीपति ने ये पुरुष सोये हुए हैं ऐसा मानकर बड़ी आवाज से बुलाया, बार-बार आवाज देने पर भी उन्होंने जब कुछ भी जवाब नहीं दिया, तब पास में आकर सबको अच्छी तरह
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