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परिकर्मद्वार-अर्ह नामक अंतरद्वार-वंकचूल की कथा
श्री संवेगरंगशाला निश्चय ही एक प्रहार से हाथी के कुंभस्थल के टुकड़े करते, वे भी स्त्री के नेत्र रूपी बाल के प्रहार से (कटाक्ष से) घायल होकर दुःखी होते है ।।१०५७।। परन्तु यह सत्त्ववान् पुरुष है, इस रानी के प्रार्थना करने पर भी अपनी मर्यादा को लेशमात्र भी नहीं छोड़ता है, इस कारण से यह पुरुष दर्शन करने योग्य है। इस प्रकार राजा जब विचार करता है तब अन्तिम निर्णय के लिए रानी पुनः बोली-अरे तूंने क्या निश्चय किया? क्या तूं मेरा वचन नहीं मानेगा? उसने भी हर्षपूर्वक कहा-मैं आपकी बात स्वीकार करने में असमर्थ हूँ। फिर अत्यन्त क्रोधित बनी रानी जोर-जोर से चिल्लाने लगी कि-अरे पुरुषों! राजा का सारा धन लूटा जा रहा है, आप उसकी उपेक्षा क्यों कर रहे हो? दौड़ो! दौड़ो! चोर यहीं पर है। शोर सुनकर चारों तरफ से रक्षक पुरुष आ गये, हाथ में तलवार, चक्र
और बाण वाले सैनिक जितने में जैसे उसके ऊपर प्रहार करते हैं इतने में राजा ने कहा-अरे! इस चोर का मेरे समान रक्षण करना। उन सैनिकों से घिरा हुआ भी महान गजेन्द्र के समान अक्षुभित चित्तवाले और हाथ में शोभित तलवार वाले उस वंकचूल ने रात्री पूर्ण की।
इधर रानी के प्रति क्रोधित वह राजा शयन घर में गया और सोये हुए भी वह पिछली रात में मुसीबत से उठा, उसके बाद प्रभात हुआ, प्राभातिक बाजे बजे, तब काल निवेदक चारणपुत्र ने इस प्रकार कहा-हे देव! अखण्ड प्रताप वाले, सभी तेजस्वियों के तेज को नाश करने वाले, अखण्ड पृथ्वी मण्डल को धारण करने वाले, दुष्टों के प्रयास का प्रतिघात करने वाले, विकसित लक्ष्मी के खान समान, स्थिर पुण्योदय वाले, और सन्मार्ग को प्रकाश करने में तत्पर, सूर्य समान विजयी बनों। राजा ने सुनकर प्रभात के समग्र कार्य करके रात्री के वृत्तान्त को स्मरण करते हुए राज्यसभा में बैठा। उस समय प्रणाम करते पहरेदार पुरुषों ने कहा-हे देव! 'यह वह चोर है' ऐसा बोलकर वंकचूल को वहाँ उपस्थित किया, और उसका रूप देखकर मन में आश्चर्यपूर्वक राजा ने विचार किया-ऐसी आकृति वाला यह चोर कैसे हो सकता है? यह वास्तविक में चोर ही होता तो रानी के वचन स्वीकार क्यों नहीं करता? क्योंकि भिन्न चित्तवाला वह सावध होने से प्रायःकर कहीं पर स्खलना प्राप्त नहीं करता है? अथवा यह विकल्प करने से क्या लाभ? इसी को ही पूछ लूँ, ऐसा सोचकर स्नेहयुक्त नेत्रों से राजा ने उसको देखा, और उसने राजा को नमस्कार किया, फिर उसे उचित आसन दिया। उसके ऊपर वंकचूल बैठा तब राजा ने स्वयं पूछा-अरे देवानुप्रिय! तुम कौन हो? और अत्यन्त निन्दनीय कुलीन के अयोग्य नीच चोरी का कार्य तुमने क्यों किया है? वंकचूल ने कहा-केवल कायरता से यह कार्य नहीं किया, परन्तु जैसे भूखे परिवार द्वारा प्रार्थना करने से और क्षीण वैभव वाले महापुरुषों की भी बुद्धि वैभव चलित हो जाता है वैसे दरिद्रता के कारण मेरी बुद्धि मलिन हो गयी है, और जो आप पूछते हैं कि-तूं कौन है? वह भी मेरी ऐसी प्रवृत्ति से मेरा स्वरूप प्रकट होता है। इससे कुछ भी कहने योग्य नहीं है। राजा ने कहा-ऐसा मत बोल, तूं सामान्य नहीं है, अब यह बात रहने दे, रात्री का वृत्तान्त कहो। इससे 'रानी की सर्व बातें राजा ने जानी हैं', ऐसा निश्चय करके उसने कहा-हे देव! सुनिए, आपके घर की चोरी की इच्छा वाला मैं यहाँ आया था और रानी ने भी किसी तरह मुझे आते देख लिया, हे राजन्! इसके बिना अन्य वृत्तान्त नहीं है। बार-बार पूछने पर भी महात्मा के समान रानी की बात न कहकर केवल अपनी ही भूल कही, तब उसकी सज्जनता से प्रसन्न हुए राजा ने कहा-हे भद्र! वरदान माँगो! मैं तेरी शुद्ध प्रवृत्ति से प्रसन्न हुआ हूँ। इससे दो हाथ जोड़कर वंकचूल ने विनती की कि-हे देव! मुझे यही वरदान दो कि 'देवी के प्रति कुछ भी क्रोध नहीं करना' क्योंकि मैंने उसे माता कहा है। राजा ने उसे स्वीकार किया और अति गाढ़ स्नेह से उसके प्रति पुत्र समान अत्यन्त पक्षपाती बनकर राजा ने उस वंकचूल को महान सामन्त पद पर स्थापन 1. अन्य कथाओं में यह मेरे पर बलात्कार कर रहा है ऐसा रानी द्वारा कहा गया ऐसा वर्णन आता है।
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