________________
परिकर्म द्वार-अर्ह द्वार-चिलाती पुत्र की कथा
श्री संवेगरंगशाला निषेध किया। 'उसका अत्यन्त स्नेही जिनदास के कहने से इस औषध को करेगा' ऐसा मानकर राजा ने अपने पुरुष को भेजकर अन्य गाँव से जिनदास को बुलाने भेजा। जिनदास ने आते हुए रास्ते में दो देवियों को रोते हुए देखकर पूछा-तुम क्यों रो रही हो? उन्होंने कहा कि-मांस नहीं खाने से मरकर वंकचूल हमारे सौधर्मकल्प की देवियों का नाथ होगा, परन्तु यदि तुम्हारे वचन से किसी तरह भी मांस को खायेगा तो निश्चय नियम भंग से वह अन्यत्र दुर्गति में पड़ेगा। इस कारण से हम रो रही हैं, अतः हे महाभाग! यह सुनकर अब आपको जैसा योग्य लगे वैसा करना।
यह सुनकर विस्मित मन वाला वह जिनदास उज्जैनी में गया, और वंकचूल को देखा, राजा के अति आग्रह से कहा-हे सुभग! तूं कौए के मांस का भक्षण क्यों नहीं करता? निरोगी शरीर होने के बाद तूं प्रायश्चित्त कर लेना। वंकचूल ने कहा-हे धर्ममित्र! तूं भी ऐसा उपदेश क्यों दे रहा है? जानबूझकर नियम का खण्डन कर फिर क्या प्रायश्चित्त हितकर है? यदि नियम का भंगकर फिर उसका प्रायश्चित्त करना तो उससे प्रथम ही नियम भंग नहीं करना वही योग्य है। इससे जिनदास ने राजा से कहा-हे देव! यह प्राण का त्याग करेगा परन्तु चिरकाल से ग्रहण किये नियम को नहीं छोड़ेगा। इसलिए हे देव! अब वंकचूल का परलोक हित करो। निश्चित मृत्यु होने वाली है तो यह अकार्य करने से क्या लाभ? ऐसा कहने से राजा ने श्रुतनिधि गीतार्थ साधुओं को बुलाकर अन्तिम काल की विधि सहित धर्म का तत्त्व समझाया। उसके बाद वंकचूल ने साधु के पास में पूर्व के सारे दुराचारों की आलोचना कर समग्र जीवों से क्षमा याचना कर, पुनः अनेक व्रतों को सविशेषतया स्वीकारकर, आहार का त्यागकर, पंच परमेष्ठी मंत्र का जाप करते आयुष्य पूर्णकर बारहवें अच्युत देवलोक में महर्द्धिक देव हुआ। जिनदास भी अपने गाँव की ओर पुनः वापिस चला, रास्ते में उन दो देवियों को उसी तरह रोते देखकर बोला-वंकचूल ने मांस नहीं खाया है फिर तुम क्यों रो रही हो? तब देवियों ने कहा-विशेष धर्म की आराधना करने से वह हमारा पति नहीं बना, परन्तु वह बारहवें कल्प में उत्पन्न हुआ है। इस कारण से पुण्य रहित हम तो आज भी पति बिना इसी प्रकार रहीं, इसलिए शोक कर रही हैं। उसके बाद जिनदास 'वंकचूल ने जिन धर्म के प्रभाव से सुंदर देव ऋद्धि प्राप्त की' ऐसा जानकर इस तरह चिंतन करने लगा-परम प्रीति से व्याकुल, नमे हुए इन्द्रों के समूह के सोने के मुकुट से घिसते चरण कमल वाले सब श्रीजिनेश्वर भगवंत विजयी हैं कि जिन्होंने मोक्ष अथवा देवलोक की लक्ष्मी का कर मिलाप करवाने में एक दक्ष रूप धर्म का उपदेश दिया है. उस धर्म के प्रभाव से अन्तिम समय में एक क्षण (अन्तर्मुहूर्त) भी अतिशुद्धता पूर्वक धर्म का पालनकर सभी गहरे पाप मैल को धोकर वंकचूल के समान जीव श्रेष्ठगति को प्राप्त करते हैं। उस श्री वीतराग परमात्मा का जगत्पूज्य धर्म विजयी रहे। इस तरह वंकचूल का चरित्र कहा। अब पूर्व के कथनानुसार चिलाती पुत्र का वृत्तान्त कहते हैं ।।११३१।।
चिलाती पूत्र की कथा पृथ्वी प्रतिष्ठित नगर में श्री जिन शासन की निन्दा करने में आसक्त, अभिमानी पण्डित यज्ञदेव नाम का ब्राह्मण रहता था। वाद में जो जिससे हारे वह उसका शिष्य हो जाय ऐसी प्रतिज्ञापूर्वक वह वाद करता था। एक दिन प्रवर बुद्धिमान साधु ने उसे वाद में जीत लिया और उसे दीक्षा दी। परन्तु बाद में उसने दीक्षा छोड़ने की इच्छा की तो देवी ने निषेध किया, इससे वह साधु धर्म मे निश्चल बना। तो भी जाति मद के कारण शरीर, वस्त्र पर मैल जम जाने से मन में उस पर घृणा करता था। उसके बाद अपने समग्र स्वजन वर्ग को प्रतिबोध दिया मगर जिसके साथ उसका विवाह हुआ था। उसका उस पर गाढ़ प्रेम होने से वह दीक्षा त्याग करवाना चाहती थी, फिर भी देवी के कहने से निश्चल चित्तवाला सद्धर्म में तत्पर वह दिन व्यतीत करता था। अतः किसी दिन उसकी स्त्री ने
- 53
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org