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परिवर्न द्वार-अर्ह नामक अंतर दार-वंकचूल की कथा
श्री संवेगरंगशाला पाप का त्याग किया हो, आराधना में रहने वाला, अन्य की आराधना को सुनकर या देखकर जो उनकी भक्ति में प्रेमी मन वाला होता हो। मैं भी श्रीसर्वज्ञ कथित विधिपूर्वक क्रमशः आचरण करते पूर्ण साधुता को प्राप्तकर पुण्य से ऐसा सुसाधु कब, किस तरह होऊँगा? इस तरह अपने आत्मा में चिन्तन करने वाला, भावना से श्रेष्ठ बुद्धिमान, स्थिर, शान्त प्रकृति वाला और जो शिष्टजन के सन्मान पात्र हो, उसे आराधना के योग्य जानना चाहिए। अथवा पूर्व में अत्यन्त उग्र मन, वचन, काया की प्रवृत्ति वाला, क्रूरकर्मी, हमेशा मदिरा पान करने वाला, गन्ने के रस आदि मादक वस्तु का आसेवन करने वाला, मदिरा, पान और मांस का भोजन करने में लालची मन वाला, स्त्री, बाल, वृद्ध की हत्या करने वाला, चोरी और परस्त्री सेवन में तत्पर, असत्य बोलने में प्रेम रखने वाला, तथा धर्म की हँसी करने वाला भी पीछे से कोई भी वैराग्य का निमित्त प्राप्तकर पश्चाताप करने वाला, परम उपशम भाव को प्राप्त करने वाला, ऐसा शुभाशय वाला, धीर पुरुष भी राजपुत्र वंकचूल तथा चिलातिपुत्र आदि के समान निश्चय ही आराधना के योग्य हैं ।।८३७।। वह इस प्रकार है
वंकचूल की कथा यथास्थान पर रचना किये हुए तीन रास्ते, चार मार्ग, बाजार, मंदिर और भवनों से रमणीय श्रीपुर नाम का नगर था। उसमें विमलयश नाम का राजा राज्य करता था। युद्ध में शत्रुओं के हाथियों के कुंभस्थल भेदन करने से लगे हुए रुधिर के बिन्दुओं से उद्भट कान्ति वाली उसकी तलवार मानों अत्यन्त कुपित हुई यम की कटार हो ऐसी दिखती थी। जबकि दूसरी ओर मणिमय मुकुट की किरणों से अलंकृत उसका मस्तक भक्तिवश जिन मुनियों के चरण कमलों में भ्रमर जैसा बन जाता था। उस राजा के निरुपम रूप आदि गुणों से देवियों को भी लज्जित करने वाली सकल अन्तःपुर में श्रेष्ठ सुमंगला नाम की रानी थी। साथ में जन्म लेने से परस्पर अति स्नेह वाले उसके पुष्पचूल नामक पुत्र और पुष्पचूला नामक पुत्री दो सन्तानें थीं। परन्तु नगर में लोग सर्वत्र अनर्थों को उत्पन्न करने से पुष्पचूल को निश्चय रूप में वंकचूल ही कहते थे। इस तरह नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त करते वंकचूल के कारण प्रजा के द्वारा राजा को एक दिन उलाहना सुननी पड़ी, इससे रोषित होकर राजा ने उसे देश निकाला दे दिया। तब अपने परिवार से युक्त उस बहन को साथ लेकर नगर से चल दिया। क्रमशः आगे बढ़ते वह अपने देश का उल्लंघन कर एक अटवी (जंगल) में पहुँचा। बहुत पर्वतों से युक्त, वह वन सिंह के नखों से भेदन किये हुए, हाथियों की चीख से भयंकर था। जहाँ घटादार महावृक्षों ने सूर्य की किरणों को रोक दिया था। घूमते हुए अष्टापद प्राणियों के हेषारव आवाज सुनकर सिंह वहाँ से दौड़-भाग रहे थे। सिंहों को देखने से व्याकुल बने मृग का झुंड वहाँ गुफाओं में प्रवेश कर रहा था। कामी पुरुषों से वेश्या जैसी घिरी हुई होती है वैसे सौ से सारा वन व्याप्त था। वहाँ पर कोई भी मार्ग नहीं दिखता था, ऐसी भयानक अटवी में वे लोग आ पहुँचे। वहाँ भूख-प्यास से पीडित वह वंकचल बोला-हे परुषों! ऊँचे वक्ष के ऊपर चढकर चारों तरफ देखो! कि यहाँ कहीं पर जलाशय अथवा गाँव आदि बस्ती है? ।।८५० ।। उसके कहने पर वे पुरुष ऊँचे श्रेष्ठ वृक्ष पर चढ़कर चारों दिशा में अवलोकन करने लगे तब उन्होंने थोड़ी दूर काले श्याम और जंगली भैंसे के समान काले शरीर वाले, अग्नि को जलाते हुए, भिल्लों को देखा और उन्होंने राजपुत्र से कहा। उसने भी कहा कि हे भद्रों! उनके पास जाओ और गाँव का रास्ता पूछो। यह सुनकर पुरुष उन भिल्लों के पास गये, और मार्ग का रास्ता पूछने लगे, तब भिल्लों ने कहा कि-तुम यहाँ कहाँ से आये हो? तुम कौन हो? किस देश में जाने की इच्छा रखते हो? वह सारा वत्तान्त कहो! पुरुषों ने कहा कि-श्रीपुर नगर से विमलयश राजा का पुत्र वंकचूल नाम का है, वह पिता के अपमान से निकलकर परदेश जाने के लिए यहाँ आया है और हम उसके सेवक तुम्हारे पास मार्ग पूछने आये हैं। भिल्लों ने
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