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आराधना विराधना के विषय में क्षुल्लक मुनि की कथा
श्री संवेगरंगशाला यथोक्त विधि से उसका पालन करने लगा, और जिस दिन पूरे पांच सौ साधु का संयोग नहीं मिलता तो उस दिन वह भोजन का त्याग करता था। इस तरह वह ६ महीने तक अभिग्रह का पालनकर अंत में संलेखनापूर्वक मरकर पाँचवें ब्रह्मदेव लोक में उत्पन्न हुआ।।७८७।।
वहाँ भी अवधिज्ञान के बल से भूतकाल का वृत्तान्त जानकर तीर्थंकर और साधुओं को वंदन आदि प्रवृत्ति करते हुए आयुष्य पूर्णकर चम्पापुरी में राजा चन्द्रराजा के पुत्र रूप में जन्मा, वह बुद्धिमान वहाँ भी पूर्वभव में साधुओं के प्रतिदृढ़ पक्षपाती होने से पूज्य भाव से मुनियों को देखकर जातिस्मरण ज्ञान को प्राप्त हुआ और सन्तोष का अनुभव करने लगा। इससे ही माता पिता ने उसका नाम प्रियसाधु रखा, फिर युवावस्था में उसने संयम स्वीकार किया, वहाँ भी समस्त तपस्वी साधु की सेवा आदि करने में तत्पर बना, विविध अभिग्रह स्वीकार करने में एक लक्ष्यवाला और अप्रमादी बनकर वह जीवन के अंत में संलेखना करके शुक्र (सहस्रार) देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से मानव और देवलोक में दैवी सुखों का अनुभव करते हुए यावत् सर्वार्थ सिद्ध में सर्वोत्कृष्ट सुख भोगकर, वहाँ से मनुष्य जन्म को प्राप्त कर दीक्षा अंगीकार की, और निरवद्य आराधना की विधि यथार्थ रूप से पालन करने लगा, और मोहरूपी योद्धाओं का पराभव कर संसार के निमित्त भूत कर्मों के समूह को खत्म कर दिया, तत्पश्चात् सुर-असुरों से महिमा गाने वाले हिम समान उज्ज्वल शिवपुर को प्राप्त किया।
इस तरह क्षल्लक मनि के समान दीक्षा लेने वाले और ज्ञान से दक्ष बने हए भी प्रमादी साध आराधना विधि का पालन नहीं कर सकते हैं। और इस क्षुल्लक के जीव ने जैसे साधु पना पालन किया वैसे जो प्रत्येक जन्म में श्रेष्ठ साधु जीवन पालन करता है वह लीला मात्र से आराधना द्वारा विजयलक्ष्मी को प्राप्त करता है। इस प्रकार मरुदेवी आदि दृष्टान्त से प्रमाद नहीं करना चाहिए, परन्तु निष्कलंक दीक्षा का पालन यह मृत्यु समय की आराधना का कारण होने से उसका पालन नित्यमेव करना चाहिए।
__ यह सुनकर महासेन मुनि ने कहा कि-'पूर्व में साधु जीवन की साधना नहीं करने पर भी निश्चय से मरुदेवी माता सिद्ध हुए हैं' ऐसा कहा है। उसमें क्या परमार्थ है? गुरु गणधर ने कहा-पूर्व में उसका चित्त धर्म वासित न हो, ऐसा कोई जीव यद्यपि मरणांत आराधना करे, तो भी क्षात्र विधि के दृष्टान्त से वह सर्व के लिए प्रमाणभूत नहीं है ।।८०० ।। वह दृष्टान्त इस प्रकार :- जैसे किसी पुरुष ने कील गाड़ने के लिए जमीन में खड्डा खोदा। किसी प्रकार दैव योग से रत्न का खजाना मिल गया, तो क्या अन्य किसी भी कारण से किसी स्थान पर जमीन पर खड्डा खोदने से खजाना मिल जायगा? अर्थात् नहीं मिल सकता है। अतः सर्व विषय में एकान्त नहीं है। यद्यपि वह मरुदेवी पूर्व जन्म में कुशल धर्म के अभ्यासी नहीं थी फिर भी कथंचित सि
तो क्या इसी तरह सर्वजन सिद्ध हो जायेंगे? ऐसा नहीं होगा। इसलिए मरुदेवी आदि के दृष्टान्त से प्रमाद नहीं करना। जो मल प्रतिज्ञा-नियमों का पालन करता है और क्रमशः बढते शभ भावना वाला हो वह अन्तिम आराधना कर सकता है। ऐसा समझना चाहिए।
विधिपूर्वक परिपूर्ण आराधना करने की इच्छा वाले मुनि अथवा श्रावक को रोगी के समान सर्वप्रथम आत्मा को परिकर्मित अर्थात् दृढ़ अभ्यासी बनाना चाहिए, इस कारण से विशेष क्रियार्थियों के लिए पहले कहा हुआ परिकर्म विधान नाम का मुख्य द्वार बतलाया है। उसमें, उस द्वार के साथ में सम्बन्ध रखने वाले, उसके समान गुण वाले जो पन्द्रह अन्तर्गत द्वार हैं, उसे क्रमशः कहता हूँ
(१) अर्ह द्वार, (२) लिंग द्वार, (३) शिक्षा द्वार, (४) विनय द्वार, (५) समाधि द्वार, (६) मनोनुशास्ति द्वार, (७) अनियत विहार द्वार, (८) राज द्वार, (९) परिणाम द्वार, (११) मरणविभक्ति द्वार, (१२) अधिगत
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