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आराधना विराधना के विषय में क्षुल्लक मुनि की कथा
श्री संवेगरंगशाला और विमान की पंक्तियों से यह आकाश मण्डल भी ढक गया है, और यह आकाश दुंदुभि की आवाज से व्याप्त होकर गूंज उठा है। हे माताजी! देखो, इस तरफ इन्द्रों का समूह मस्तक को नमाकर प्रभु की स्तुति करते हैं, देखो। इस तरफ अप्सराएँ नाच रही हैं, और ये किन्नर हर्षपूर्वक गाने गा रहे हैं।
___ भरत महाराजा की बातें सुनकर और जिनवाणी का श्रवण करने से हर्ष प्रकट हुआ, हर्ष समूह से नेत्रपटल आनन्दाश्रुजल से धुलकर साफ हो गये, निर्मल नेत्रों वाली मरुदेवी ने छत्रातिछत्र आदि ऋषभदेव की ऋद्धि देखकर मोह समाप्त हो गया, और शुक्लध्यान को प्राप्त करने से उनके सब कर्म खत्म हो गये। उसी समय उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हो गया। और उसी समय आयु पूर्ण होने से मुक्ति पुरी में पधारी ।।७३९।। इस अवसर्पिणी काल में मरुदेवी माता ने सर्वप्रथम शिव सुख की सम्पत्ति प्राप्त की।
इस तरह अन्तिम आराधना मोक्ष के सुख का कारणभूत है।
यह सुनकर संशय से व्याकुल चित्तवाले बने हुए शिष्य महासेन मुनि ने गुरु गौतम गणधर को विनयपूर्वक नमस्कार करके पूछा कि-यदि मुनिवरों को मृत्यु के समय में प्रवचन के साररूप में यह आराधना करनी है तो अभी शेषकाल में तप, ज्ञान, चारित्र में क्यों प्रयत्न-कष्ट सहन करना। गुरु गणधर ने कहा-उसका कारण यह है कि-यावज्जीव प्रतिज्ञा का पालन करना उसे आराधना कहा है, प्रथम उसका भंग करे तो मृत्यु के समय उसे वह आराधना कहाँ प्राप्त होगी? अतः मुनियों को शेषकाल में भी यथाशक्ति दृढ़तापूर्वक अप्रमत्त भाव से मृत्यु तक आराधना करते रहना चाहिए जैसे हमेशा जपी हुई विद्या मुख्य साधना किये बिना सिद्ध नहीं होती है वैसे ही जीवन पर्यन्त प्रव्रज्या रूपी आराधना की साधना किये बिना उनसे मरणकाल की आराधना भी सिद्ध नहीं होती है। जैसे पूर्व में क्रमशः अभ्यास न किया हो ऐसा सुभट यद्यपि युद्ध में समर्थ हो, फिर भी शत्रु सुभटों की लड़ाई में वह उनसे जय पताका को प्राप्त नहीं कर सकता है, वैसे पूर्व में शुभयोग का अभ्यास न किया हो वह मुनि भी उग्र परीषह के संकट युक्त मृत्युकाल में आराधना की निर्मल विधि को प्राप्त नहीं कर सकता है, क्योंकि निपुण अभ्यासी भी अत्यन्त प्रमादी होने के कारण स्वकार्य को सिद्ध नहीं कर सकता, तो मृत्यु के समय कैसे सिद्ध कर सकेगा? इस विषय में विरति की बुद्धि से भ्रष्ट हुए क्षुल्लक मुनि का दृष्टान्त देते हैं ।।७४७।। वह इस प्रकार है :
आराधना विराधना के विषय में क्षल्लक मनि की कथा
महीमण्डल नामक नगर था। उसके बाहर उद्यान में ज्ञानादि गुण रूपी रत्नों के भण्डार रूप श्रीधर्मघोष सूरीश्वरजी महाराज पधारें। उनका निर्मल गुण वाले पांच सौ मुनियों का परिवार था, देवों से घिरा हुआ इन्द्र शोभता है वैसे शिष्यों से घिरे हुए वे शोभते थे, फिर भी समुद्र में वड़वानल समान, देवपुरी में राहु के सदृश, चन्द्र समान उज्ज्वल परन्तु उस गच्छ में संताप कारक, भयंकर, अति कलुषित बुद्धि वाला, अधर्मी, सदाचार और उपशम गुण बिना का, केवल साधुओं को असमाधि करने वाला रुद्र नाम का एक शिष्य था। मुनिजन के लिए निन्दापात्र कार्यों को बार-बार करता था। उसे साधु करुणापूर्वक मधुर वचनों से समझाते थें कि-हे वत्स! तूने श्रेष्ठ कुल में जन्म लिया है, तथा तुझे उत्तम गुरु ने दीक्षा दी है, इसलिए तुझे निन्दनीय कार्य करना अयुक्त है। ऐसे मीठे शब्दों से रोकने पर भी जब वह दुराचार से नहीं रुका, तब फिर साधुओं ने कठोर शब्दों में कहा कि-हे दुःशिक्षित! हे दुष्टाशय! यदि अब दुष्ट प्रवृत्ति करेगा तो धर्म-व्यवस्था के भंजक (नाश करने वाले) तुझे गच्छ में से बाहर निकाल दिया जायगा। इस तरह उलाहना से रोष भरे उसने साधुओं को मारने के लिए सभी मुनियों के पीने योग्य पानी के पात्र में उग्र जहर डाल दिया। उसके बाद प्रसंग पड़ने पर जब साधु पीने के लिए
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