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खण्ड १ | जीवन ज्योति
“सेठ सा० आपकी यह कन्या तो बड़ी भाग्यशालिनी है । इसकी शालीनता और शुभलक्षणों को देखकर ऐसा अनुभव होता है कि आगे चलकर यह कुलदीपिका धुरन्धर विदुषी साध्वी बनेगो और शास्त्रज्ञा बनकर ख्याति प्राप्त करती हुई उच्च पद पर प्रतिष्ठित होगी।"
योगिराज के ये उद्गार आज अक्षरशः सत्य सिद्ध हो रहे हैं ।
ओत-प्रोत धार्मिकता-यद्यपि चरितनायिका सज्जनकमारी का बचपन वैभव में व्यतीत हो रहा था, घर में सभी प्रकार की सुविधाएँ थीं, माता-पिता का अत्यधिक वात्सल्य था; फिर भी सज्जनकुमारी का जीवन धार्मिकता से ओत-प्रोत था । वह अपने स्वीकृत व्रत-नियमों का दृढ़ता से पालन करती थी । धर्म का जीवन में प्रमुख स्थान था । इसीलिए ६ वर्ष की आयु में ही उसने दीक्षा लेने की भावना प्रगट की थी, जिसे सुनकर पिताश्री गुलाबचन्द जी सा० गहरे विचारों में डूब गये थे ।
विवाह-मोह की बड़ी विचित्र विडम्बना है । यद्यपि गुलाबचन्दजी धार्मिक थे, धर्म के मर्म को जानते थे, बारहव्रती श्रावक थे, फिर भी पुत्री के प्रति अत्यधिक प्रेम था । वे पुत्री को दीक्षित होते देखना नहीं चाहते थे । पुत्री-प्रेम के प्रवाह में उनका चिन्तन दूसरी ओर मुड़ गया। सोचा-इसका विवाह कर देना चाहिए । गृहस्थी में फंसकर यह साध्वी बनने की बात भूल जायेगी। घर में रहकर ही जितनी संभव होगी, धार्मिक साधना करती रहेगी।
आज के युग में 6 वर्ष की कन्या के विवाह के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता। ऐसी बात कहने वाले को भी आज के युग में दकियानूसी और पुराणपंथी कहा जायेगा । बहुत से लोग उसका मजाक भी बना सकते हैं; लेकिन उस युग में यह आम प्रथा थी। सात, यहाँ तक कि पाँच वर्ष तक की कन्याओं के विवाह कर दिये जाते थे । मनु के ये शब्द जन-मानस में गहरे पैठ चुके थे--
नव वर्षा भवेद् गौरी दश वर्षा च रोहिणी सभी उच्चकुलीन व्यक्ति अपनी नववर्षीया पुत्री को विवाह-बंधन में बांध देना अपना कुल-गौरव समझते थे।
इसके विपरीत आज के युग में विवाहयोग्य आयु २० वर्ष से ऊपर मानी जाती है। स्त्री-शिक्षा के प्रसार के कारण कन्या की शैक्षिक योग्यता कम-से-कम बी० ए० है। उससे पहले माता-पिता उसके विवाह की बात भी नहीं सोचते, उसे स्वयं विवाहयोग्य ही नहीं समझते । स्वयं कन्याओं की भी ऐसी ही विचाराधारा है।
लेकिन श्री गुलाबचन्दजी जिस युग में जी रहे थे, उसी युग से प्रभावित थे। अतः वे भी अपनी पुत्री सज्जनकुमारी, जो अभी नौ वर्ष की ही थी, उसका विवाह करना अपने कुल-गौरव के अनुरूप ही समझते थे।
इसके अतिरिक्त सज्जनकुमारी की दीक्षा लेने की भावना ने उन्हें और भी उत्प्रेरित कर दिया। उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह शीघ्र कर देने का निर्णय कर लिया।
निर्णय के अनुसार पंडितजी को सज्जनकुमारी की जन्म-पत्रिका दिखाई गई।
खण्ड १/२
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