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पुरुषार्थ सिद्धि उपाय : आचार्य अमृत चंद्र स्वामी
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पुरुषार्थ देशना परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विशुद्ध सागरजी महाराज Page 51 of 583 ISBN # 81-7628-131-3
v- 2010:002
"भोग में योग कहाँ"
परिणममानो नित्यं ज्ञानविवर्तैरनादिसन्तत्या
परिणामानां स्वेषां स भवति कर्त्ता च भोक्ता च 10
अन्वयार्थ:
सः = वह ( चैतन्य आत्मा ) अनादिसन्तत्या = अनादि की परिपाटी सें नित्यं = निरन्तरं ज्ञानविवर्तैः ज्ञानादि गुणों के विकाररूप रागादि परिणामों सें परिणमनमानः = परिणमन करता हुआं स्वेषां = अपनें परिणामानां = रागादि परिणामों कां कर्त्ता च भोक्ता च = कर्त्ता और भोक्ता भीं भवति = होता है
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भो मनीषियो! तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की दिव्य - देशना हम सभी सुन रहे हैं आचार्य भगवन् अमृतचंद्रस्वामी ने पूर्व सूत्र में बहुत ही सहज कथन किया कि पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रंथ पुरुष की सिद्धि के उपाय का ग्रंथ हैं जो आत्मा है, वही पुरुष हैं जो आत्मदृष्टि से देखता है, उसे पर्यायों का परिणमन नहीं दिखतां संयोग या वियोग पर्यायों का हैं द्रव्य - आत्मा अपने आप में अखण्ड है, अस्तिरूप है, चिदरूप है, चैतन्य स्वरूप हैं इसलिए इसका नाम सच्चिदानन्द चैतन्य आत्मा है, वही आत्मा का स्वरूप हैं उस सच्चिदानन्द स्वरूप को न समझने के कारण इस जीव ने पुद्गल में आनंद मनाया है और पुद्गल के आनंद के कारण ही संसार में परिणमन चल रहा हैं अतः, आत्मा का स्वरूप सामान्य हैं द्रव्य 'सामान्य' ही होता है, पर्याय विशेष होती है इसलिए 'सामान्य' त्रैकालिक होता है और 'विशेष' तात्कालिक जैसे- चातुर्मास के समय आप से कोई पूछता है क्यों, विशेष क्या हुआ? स्वाध्याय / प्रवचन तो सब जगह होता है, विशेष क्या हुआ? अतरू पर्याय 'विशेष' होती है और गुण द्रव्य 'सामान्य' होता हैं 'विशेष' परिवर्तनशील होता है, 'सामान्य' त्रैकालिक होता हैं चाहे आप मनुष्य हो, चाहे तिर्यंच हो, चाहे देव हो, जीव वहाँ भी होगा, परन्तु 'विशेष' बदलता हैं इसलिए पर्यायार्थिकनय को 'विशेष' कहा जाता है और द्रव्यार्थिकनय को 'सामान्य' कहा जाता हैं परन्तु ध्यान रखना, सामान्य से रहित विशेष को जो मानता है, वह गधे के सींग के समान हैं।
मनीषियो! जैनदर्शन की यह तात्विक चर्चा है, जिसमें नीतियाँ सामान्य होंगी, परन्तु सिद्धान्त विशेष ही होता हैं सिद्धांतों से ही दर्शन की पहिचान होती हैं पर ध्यान रखना, सामान्य विशेषात्मक ही वस्तु का स्वभाव हैं चैतन्य 'सामान्य' है, सिद्ध पर्याय 'विशेष' है, निगोद पर्याय 'विशेष' हैं इसलिए ज्ञानचेतना, कर्मचेतना, कर्मफल- चेतना यह तेरी तीन चेतनाएँ हैं, पर चैतन्य चेतना सामान्य हैं तू निगोद में था, उस समय कर्मफल- चेतना भोग रहा थां आप स्थावर एक इंद्रिय वनस्पतिकाय में थे, जब लकड़हारा अपने कंधे पर
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