Book Title: Prakrit Verses in Sanskrit Works on Poetics Part 02
Author(s): V M Kulkarni
Publisher: B L Institute of Indology

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Page 612
________________ 548 Prakrit Verses in Sanskrit Works on Poetics eight or sixteen parts of water until only one quarter is left) - Mar. काढा; कषाय: क्वाथो जलम्। नावनं नस्यम् | a stermutatory, errhine. 117. 'Sugrīva asks his followers not to be discouraged by Rāma's indecision about what should be done to cross over to Lankā' - Handiqui, p.21 f.n.22, vide Extracts from Sanskrit Commentary in Appendix I. 119. The coral-reefs are fancied as the ocean's blood. The imagery is that of blood turned black by poison'. - Handiqui, p. 43. f.n.35 'महोदधेरन्तर्वर्तमानत्वात् वर्णसाम्याच विद्रुमो रुधिरत्वेन निर्दिष्टः। विषवेगस्पृष्टं रुधिरं सद्य: कृष्णं भवति ।' - As cited by Handiqui, p. 317. Vide also Extracts from Sanskrit Commentary in Appendix I. 120. हतच्छायं हता छाया शोभा यथा भवति । शिखाशब्दो दीपापेक्षया प्रयुक्त: निश्चललोचनमित्यर्थः। अन्यत्र निश्चलज्वालम् । प्रोषितप्रतापं प्रोषितपौरुषं यथा। अन्यत्र प्रोषितोष्णम्। एवं तेषां कापेयमपि गलितम्। किमिव - आलेख्यप्रदीपानामिव। चित्रदीपानां यथा चटुलत्वमेव न भवति तद्वत्। - As cited by Handiqui, Extracts ---, p.228. 122. इह कयापि नायिकया लोचनाभ्यां चषके सुगन्धि-मद्य-भृते प्रतिमया प्रतिबिम्बेन पतिताभ्याम। अत एव मदेनाताम्राभ्यामतिलोहिताभ्यां मनोज्ञा रक्तोत्पलदलस्य शोभा लघ्वीकृतात्यल्पा कृता। जितेति यावत्। 'चषकं पानपात्रं स्यात् इति हारावली। ---अत्र नेत्रयोरुपमेययोर्मदताम्रत्वं वैकृत उत्कर्षः स्फुट एव। - जगद्धर, विवरणे, पृ. ४३८-३९. 123. For this Apabhramsa stanza, vide Appendix II, p. 39. 127. Read (in Vol. I, p. 365) पीणुण्णअ-थणि उत्तम्म एत्ताहे | cf. S. No. 734.185 supra. 135. GS(W) 878 reads : कालक्खर दू (? दु) सिक्खिअ धम्मिअ रे णिंबकीडअसरिच्छ। दोण्ण (? दोण्ह) वि णिरअ - (? णरअ-) णिवासो, समअंजइ होई (? होइ) तहि होदु (? ता होउ)।। Incidentally, it may be noted that the Sanskrit chayaof 'धम्मिअ रे जिंबकीडअ-सरिच्छ' is wrongly given as 'रे लग मम कण्ठे'. It may be replaced by 'धार्मिक रे निम्ब-कीटक-सदक्ष | सदृश.' 'बालक रे लग मम कण्ठे' is the correct chāya of 'बालअ रे लग्ग मज्झ कंठम्मि' - the reading in SK (p. 471). दुस्सिक्खिअ (= दु:शिक्षित) - one who is pampered, overfondled. 140. Read in the chaya जल-समूहं.

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