Book Title: Panchsangraha Part 02
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 24
________________ कारण मिलते हैं। शरीर की निरोगता, सरोगता, सुन्दरता, सामर्थ्य, क्षुधा, तृषा, खेद, पीड़ा आदि का कारण कर्म है । बाह्य इष्ट पदार्थ, स्त्री, पुत्र, धन, मित्र आदि सुख-दुःख के निमित्तभूत हो सकते हैं। परन्तु जिसका ऊपर निर्देश किया गया है उस कार्यमर्यादा का विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्म बाह्य सम्पत्ति के संयोग-वियोग का कारण नहीं है। क्योंकि अन्तरंग योग्यता के बिना बाह्य सामग्री का कोई महत्त्व नहीं है। जैसे कि वीतराग योगीजनों के समक्ष प्रबल राग की सामग्री उपस्थित होने पर भी राग पैदा नहीं होता है। यद्यपि स्थिति ऐसी है, फिर भी जनसाधारण में प्रवर्तमान कर्मविषयक उक्त धारणा का कारण नैयायिकों का कर्मविषयक दृष्टिकोण है । वे कार्यमात्र के प्रति कर्म को कारण मानते हैं । वे कर्म को जीव/ चेतन निष्ठ मानते हैं । उनका मत है कि चेतनगत विषमताओं का कारण कर्म तो है ही, साथ ही वह अचेतनगत सब प्रकार की विचित्रताओं और उनके न्यूनाधिक संयोगों का भी जनक है । उनके मत से जितने भी कार्य होते हैं, वे किसी न किसी के उपभोग के योग्य होने से उनका कर्ता कर्म ही है । _____ नैयायिकों ने समवायी, असमवायी और निमित्त यह तीन प्रकार के कारण माने हैं । जिस द्रव्य में कार्य पैदा होता है, वह द्रव्य कार्य के प्रति समवायीकारण है। संयोग असमवायीकारण है और अन्य सहकारी सामग्री निमित्तकारण है। काल, दिशा, ईश्वर और कर्म ये कार्यमात्र के प्रति निमित्तकारण हैं। इनकी सहायता के बिना किसी भी कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। उन्होंने ईश्वर और कर्म को कार्य के प्रति साधारण कारण होने का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है कि जितने भी कार्य होते हैं, वे सब चेतनाधिष्ठित ही होते हैं । इसलिए ईश्वर सबका साधारण कारण है। ईश्वर के सर्वशक्तिमान होने पर भी जगत में विषमता क्यों व्याप्त है ? तो इसका उत्तर नैयायिकों ने कर्म को स्वीकार करके दिया है। वे जगत की विषमता का कारण कर्म मानते हैं। वे कहते हैं कि ईश्वर जगत का कर्ता तो है परन्तु इसकी रचना प्राणियों के कर्मानुसार की है। इसमें उसका कुछ भी दोष नहीं है। जीव जैसा करता है, उसी के अनुसार उसे योनि और भोग मिलते हैं। यदि कर्म अच्छे करता है तो अच्छी योनि और For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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