Book Title: Padarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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32...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जानकारी के अभाव में सब प्रश्नों का सही समाधान नहीं दे पाता है इससे लोक में अवर्णवाद अर्थात जिनमत के विपरीत मिथ्या प्ररूपण होता है। अपवादत: कालिक श्रुत और पूर्वो का कहीं विच्छेद न हो जाए- इस अपेक्षा से व्युत्क्रम से भी वाचना दी जा सकती है, किन्तु वाचनाग्राही शिष्य प्रियधर्मा, दृढ़धर्मा, संविग्नस्वभावी, स्वभावत: परिणामक, विनीत और परम मेधावी होना चाहिए। इन गुणों से रिक्त शिष्य व्युत्क्रम वाचनादान के अनधिकारी होते हैं।
• वाचना दान को अप्रमत्त होकर ग्रहण करें क्योंकि एकाग्रचित्त पूर्वक ग्रहण की गयी वाचना ही शुभ परिणामी होती है।
• वाचना श्रवण के समय मुनियों को निद्रा, विकथा, वार्तालाप, हँसीमश्करी आदि नहीं करना चाहिए। अविधिपूर्वक सूत्र दान में लगने वाले दोष
आचार्य हरिभद्र ने आगमिक सिद्धान्तों का अनुसरण करते हुए यह निर्देश दिया है कि जिन सूत्रों को पढ़ने के लिए आयंबिल आदि जो तप कहे गये हैं उन आगम सूत्रों का अध्यापन यथोक्त तप पूर्वक ही करवाना चाहिए। यदि निर्दिष्ट तप का उल्लंघन कर हीन तप पूर्वक सूत्र का अध्ययन करवाते हैं, तो आज्ञाभंग आदि चार दोष लगते हैं जो निम्न हैं53
1. आज्ञाभंग दोष - तीर्थङ्कर परमात्मा ने आगम सत्रों को जिस विधिपूर्वक करने का निर्देश किया है, उससे भिन्न करने पर जिनाज्ञा भंग रूप महापाप लगता है।
2. अनवस्था दोष - जिसकी परम्परा का अन्त सम्भव नहीं हो उसे अनवस्था कहते हैं। यहाँ अनवस्था दोष से यह अभिप्रेत है कि यदि एक भवाभिनन्दी जीव अकार्य करता है तो उसका आलम्बन लेकर अन्य भवाभिनन्दी जीव भी वैसा ही अकार्य करते हैं। इस प्रकार भौतिक सुखों के आकांक्षी जीवों द्वारा प्रमाद स्थानों का सेवन करने से शुद्ध संयम और तप का नाश होता है और यह परम्परा आगे से आगे चलती रहती है।
3. मिथ्यात्व दोष - साधु का असत आचरण देखकर जनसामान्य को यह शंका हो सकती है कि परमार्थत: तीर्थङ्करों का वचन लोक विरूद्ध है, अन्यथा ये साधुजन इस प्रकार का असत आचरण नहीं करते। असत आचरण करने वाला व्यक्ति नियमतः मिथ्यात्व का प्रगाढ़ बन्धन करता है, क्योंकि वह