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अध्याय-4
स्थविर पदस्थापना विधि का पारम्परिक स्वरूप
जिनशासन में स्थविर का गौरवपूर्ण स्थान माना गया है। कुछ आचार्यों ने स्थविर को भगवान की उपमा से अलंकृत किया है जैसे 'थेरा भगवन्तो' और किसी ग्रन्थ में इसे गणधर भी कहा गया है जैसे 'थेरागणहरा।' यहाँ गणधर के लिए प्रयुक्त 'स्थविर' विशेषण उनके गम्भीर श्रुतज्ञान की अभिव्यक्ति के उद्देश्य से है, विवेच्य पद के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है।
आचार्य देवेन्द्रमुनि के मतानुसार स्थविर न्यायाधीश के तुल्य होता है। वह संघीय सभी समस्याओं का समुचित रूप से निराकरण करता है। उसके द्वारा निर्दिष्ट निर्णय आचार्य को भी मान्य होते हैं। जब कभी संघीय सम्मेलन या विशिष्ट धर्मसभाएँ होती हैं और आचार्य किसी कारणवश उनमें सम्मिलित नहीं हो पाते, तब आचार्य के प्रतिनिधि के रूप में स्थविर को ही भेजा जाता है। वह छेदसूत्र का ज्ञाता एवं परिपक्व अनुभवी होने के कारण उत्सर्ग और अपवाद मार्ग के अनुसार सम्यक् निर्णय प्रस्तुत कर सकने में समर्थ होता है। स्थविर शब्द का अर्थ एवं परिभाषाएँ
__ स्थविर-थविर का संस्कृत रूप है। सामान्य रूप से स्थविर 'वृद्ध' अर्थ में व्यवहत है। प्राकृत एवं संस्कृतकोश में भी यही अर्थ भाषित है। जैन विचारकों ने वय की दृष्टि से ही नहीं, अपितु अनुभव और ज्ञान की दृष्टि से भी वृद्धत्व को स्वीकार किया है। स्थानांगसूत्र में इसी हेतु से तीन प्रकार के स्थविर कहे गए हैं
1. वय: स्थविर 2. श्रुत स्थविर और 3. पर्याय स्थविर। स्पष्ट है कि वय, श्रुत एवं अनुभव से परिपक्व मुनि स्थविर कहलाता है। जैन-साहित्य में स्थविर के सम्बन्ध में अनेक अर्थ प्राप्त होते हैं
• ओघनियुक्ति के अनुसार जो मुनि ज्ञान आदि की आराधना में अवसन्न (खेद ग्रस्त) हो गया है उसे तद्योग्य क्रियाओं में स्थिर करने वाला स्थविर कहलाता है।