Book Title: Padarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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84...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
नियमत: तीर्थङ्करों के शासनकाल में गणधरपद विद्यमान अवश्य रहता है, किन्तु तीर्थङ्करों की उपस्थिति में और उनके परिनिर्वाण के पश्चात भी प्राय: गणधर शब्द का व्यवहार नहीं देखा जाता है जैसे- गणधर सुधर्मा स्वामी के लिए 'अज्ज सुहम्मे' आर्य सुधर्मा शब्द ही व्यवहत हुआ है इसलिए तद्विषयक पदस्थापन-विधि का अभाव है। सामान्यतया 'गणानुज्ञा' में गणि एवं गणधर दोनों पदों को अन्तर्भूत समझना चाहिए। यहाँ यह विधि गणिपद की अपेक्षा से कही जायेगी, क्योंकि गणधर पद विलुप्त हो चुका है। गणि शब्द का अर्थ एवं परिभाषाएँ
गण का सामान्य अर्थ है - समूह, समुदाय, गच्छ, समान आचार-व्यवहार वाले साधुओं का समूह। गणि का अर्थ है - समान आचारवान श्रमण समुदाय का अधिपति। प्राकृत कोश में गणि के निम्न अर्थ मिलते हैं - गण का स्वामी, आचार्य, गच्छनायक, साधु समुदाय का नायक। इस कोश में आचार्य को भी गणि कहा गया है, अत: जैन साहित्य में अनेक स्थलों पर आचार्य के लिए गणि शब्द भी व्यवहत हुआ है।
स्थानांग टीका में समुदाय विशेष के अधिनायक को गणि कहा गया है।' आचारांगचूर्णि में गणि का अर्थ करते हुए लिखा है कि जिनके पास आचार्य स्वयं सूत्र और अर्थ का अभ्यास करते हैं वह गणि है।
इसका स्पष्टार्थ यह है कि आचार्य स्वयं सामान्य श्रमणों को अर्थ और सूत्र की वाचना देते हैं, लेकिन जब आचार्य को अध्ययन की अपेक्षा होती है, तो वे हर किसी से अध्ययन नहीं कर सकते, उन्हें अध्ययन करवाने वाले विशिष्ट श्रमण होते हैं। वे श्रमण ही गणि कहलाते हैं। इसी उद्देश्य से 'गणि' की नियुक्ति की जाती है, ऐसा आचार्य देवेन्द्रमुनि का अभिमत है। गणि ज्ञान के अधिदेवता रूप होते हैं जिसके कारण वे आचार्य को भी वाचना दे सकते हैं। इससे स्वत: स्पष्ट हो जाता है कि गणि आचार्य से वरिष्ठ होते हैं तथा गणधर गणि से वरिष्ठ होते हैं। __ पुनश्च आचार्य और गणि में सामान्य अन्तर यह है कि आचार्य के उत्तरदायित्व सीमित होते हैं और गणि के कर्त्तव्य विस्तृत होते हैं। एक समुदाय में कई आचार्य हो सकते हैं, किन्तु गच्छाधिपति एक ही होता है।