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प्रवर्त्तिनी पदस्थापना विधि का सर्वांगीण स्वरूप... 251
कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग पूर्णकर प्रकट में पुन: लोगस्स पाठ बोलें।
नन्दीश्रवण तत्पश्चात आचार्य खड़े होकर नन्दीसूत्र सुनाने हेतु कायोत्सर्ग आगारसूत्र बोलकर एक नमस्कारमन्त्र का कायोत्सर्ग करें और शिष्या को भी एक नमस्कारमन्त्र का कायोत्सर्ग करवाएँ।
उसके बाद आचार्य तीन बार नमस्कारमन्त्र का उच्चारण कर लघुनन्दी का पाठ सुनाएं। वह निम्न है -
" नाणं पंचविहं पण्णत्तं तं जहा आभिणिबोहियनाणं, सुयनाणं, ओहिनाणं, मणपज्जवनाणं, केवलनाणं त्ति" इतना कहकर शिष्या को प्रवर्त्तिनीपद पर प्रकृष्ट रूप से स्थापित करने की अपेक्षा 'इमाइ साहुणीए पवत्तिणीय अणुण्णा नंदी पवत्तइ' - इस साध्वी के लिए प्रवर्त्तिनी पद की अनुज्ञा रूप नन्दी प्रवृत्त होती है, ऐसा कहते हुए उसके मस्तक पर वासचूर्ण डालें।
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अनुज्ञादान उसके पश्चात आचार्य अपने आसन पर बैठकर वासचूर्ण और अक्षत को अभिमन्त्रित कर चतुर्विध संघ में वितरित करें। फिर समवसरणस्थ जिनप्रतिमा के चरणों में वासचूर्ण का क्षेपण करें।
1. उसके पश्चात प्रवर्त्तिनी योग्य शिष्या एक खमासमण देकर कहे 'तुब्भे अम्हं पवत्तिणीपयं अणुजाणह' हे भगवन्! आप मुझे गच्छ के साध्वियों के प्रवर्त्तन की आज्ञा दीजिए। गुरु कहते हैं 'अणुजाणेमो' – मैं प्रवर्त्तिनीपद पर स्थापित होने की अनुमति देता हूँ ।
2. फिर पदग्राही शिष्या एक खमासमणसूत्र पूर्वक वन्दन कर कहे 'संदिसह किं भणामो?' आप आज्ञा दीजिए, मैं क्या कहूँ? गुरु कहते हैं 'वंदित्ता पवेयह ' वन्दन करके प्रवेदित करो।
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3. नूतन प्रवर्त्तिनी पुनः खमासमणसूत्र द्वारा वन्दन करके कहे 'इच्छाकारेण तुब्भेहिं अम्हं पवत्तिणीपय अणुन्नायं -3" - आपके द्वारा क्या मुझे प्रवर्त्तिनी पद की अनुमति इच्छापूर्वक दी गयी है ? ऐसा निवेदन करने पर गुरु तीन बार 'अणुन्नायं- अणुन्नायं- अणुन्नायं' कहें। साथ ही 'खमासमणाणं हत्थेणं सुत्तेणं अत्थेणं तदुभएणं सम्मं धारणीयं चिरं पालणीयं अन्नेसिं पि पवेयणीयं' - पूर्व पुरुषों की अनुमति से सूत्र, अर्थ एवं सूत्रार्थ के द्वारा इस पद को सम्यक प्रकार से धारण करना, चिरकाल तक इस पद का अनुपालन करना