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प्रवर्तिनी पदस्थापना विधि का सर्वांगीण स्वरूप...249 आराधिका है।21 इस तरह के प्रसंग विशेष में प्रवर्तिनी के नामोल्लेख हैं किन्तु उसके स्वरूप, अधिकार, योग्यता आदि के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है। ____ व्यवहारसूत्र में भी यही कहा गया है कि प्रवर्तिनी को हेमन्त एवं ग्रीष्मऋतु में दो साध्वियों के साथ और वर्षाऋत् में न्यूनतम तीन साध्वियों के साथ रहना चाहिए। इसमें प्रवर्तिनी द्वारा भावी प्रवर्तिनी के निर्देशन-सम्बन्धी उल्लेख भी मिलते हैं।22 तदनुसार प्रवर्तिनी को यह अधिकार होता है कि वह किसी योग्य साध्वी को प्रवर्तिनी पद पर आरूढ़ कर सकती है और उसके अयोग्य सिद्ध होने पर उसे पद-त्याग के लिए भी कह सकती है।
यदि हम आगमिक व्याख्या साहित्य का अवलोकन करते हैं तो वहाँ बृहत्कल्पभाष्य,23 व्यवहारभाष्य,24 निशीथभाष्य25 आदि में प्रवर्तिनी के कार्य, प्रवर्तिनी के लक्षण आदि सामान्य वर्णन तो उपलब्ध होता है, किन्तु पदस्थापना-विधि के सम्बन्ध में कुछ कहा गया हो, ऐसा प्राप्त नहीं होता है। इससे इतना सिद्ध हो जाता है कि यह विधि विक्रम की 8वीं शती तक किसी भी ग्रन्थ में नहीं है। __ यदि हम मध्यकालवर्ती साहित्य का परिशीलन करते हैं तो पंचवस्तुक में प्रवर्तिनी की आवश्यक योग्यताएँ, अयोग्य को प्रवर्त्तिनी पद पर स्थापित करने से होने वाले दोष आदि का सामान्य वर्णन ही प्राप्त होता है। इसके अनन्तर सर्वप्रथम यह विधि सामाचारीप्रकरण (प्राचीनसामाचारी) में उपलब्ध होती है जहाँ इसका सूचनमात्र करते हुए महत्तरापदस्थापना के समान इसकी विधि सम्पन्न करने का निर्देश है।26
इसके पश्चात विधिमार्गप्रपा में भी इस पदस्थापना विधि का विस्तृत विवेचन न करते हुए मात्र इतना ही निर्देश दिया गया है कि यह विधि प्रवर्तिनी पद के नामोच्चारणपूर्वक इसमें वर्णित वाचनाचार्यपदस्थापना-विधि के समान जाननी चाहिए और उस विधि के समान ही मन्त्रदान करना चाहिए।27 विशेष यह है कि शुभ लग्न के आने पर नूतन प्रवर्तिनी को स्कन्धकरणी दी जाए। शेष सभी विधान वाचनाचार्यपदस्थापन-विधि की तरह समझने चाहिए।
तदनन्तर आचारदिनकर में यह विधि विस्तृत रूप से पढ़ने को मिलती है। वहाँ इस विधि के प्रारम्भ में यह बताया गया है कि कुछ आचार्यों के अनुसार प्रवर्तिनीपद एवं महत्तरापद की विधि एक समान हैं तथा कुछ आचार्यों के