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आचार्य पदस्थापना विधि का शास्त्रीय स्वरूप...201 तत्पश्चात गुरु के दाहिनी ओर बिछाए हुए आसन पर बैठ जाएं।
मन्त्र प्रदान - उसके बाद शुभ लग्न का समय उपस्थित होने पर गुरु भगवन्त नूतन आचार्य के चन्दन से पूजित दाहिने कर्ण में पूर्व परम्परागत सूरिमन्त्र को तीन बार सुनाएं।
यह सूरिमन्त्र भगवान वर्धमान स्वामी द्वारा गौतम स्वामी को इक्कीस सौ अक्षर परिमाण दिया गया था। गौतम स्वामी ने उस मन्त्र को बत्तीस श्लोक परिणाम में गुम्फित किया। कालदोष के कारण इस मन्त्र का ह्रास होते-होते पाँचवें आरे के अन्तिम आचार्य दुप्पसहसूरि के समय साढ़े आठ श्लोक परिमाण रह जाएगा। आज्ञाभंग की सम्भावना होने से इस मन्त्र को पुस्तक पर नहीं लिखा जाता है। वर्तमान में यह सूरिमन्त्र जितनी मात्रा में प्रवर्तित है उतना सम्पूर्ण मन्त्र लग्नवेला में मनाया जाता है। इष्टलग्न का काल अल्प होने से उस समय सम्पूर्ण मन्त्र सुनाना सम्भव नहीं है इसलिए इष्टलग्न के पहले ही सूरिमन्त्र की पाँच पीठिकाओं में से चार पीठिका के मन्त्र सुना देने चाहिए। इष्टलग्न में चारों पीठिकाओं का स्वामी ‘मन्त्रराज' के पाँच अथवा सात जैसी परम्परा हो उतने पद आदि सुनाने चाहिए, ऐसा गुरु का आदेश है। इस मन्त्र को उपचारत: कोटि अंश तप के द्वारा सिद्ध किया जाता है। इस मन्त्र की साधना विधि पृथक रूप से कहेंगे। ___अक्षदान – सूरिमन्त्र सुनाने की विधि पूर्ण होने के पश्चात पदग्राही शिष्य एक खमासमण द्वारा वन्दन करके कहे – “इच्छाकारेण तुब्भे अहं अक्खं समप्पेह" हे भगवन्! आपकी इच्छा हो, तो मुझे अक्ष समर्पित करें। उसके बाद गुरु कर्पूर मिश्रित गंध को बढ़ाते हुए क्रम से तीन बार मुट्ठी भर के अक्ष दें। शिष्य भी उसे उपयोगपूर्वक दोनों हाथों में ग्रहण करें।
यहाँ अक्ष का अर्थ सामान्यतया स्थापनाचार्य है और स्थापनाचार्य रखने का मुख्य अधिकार आचार्य को होता है इसलिए नुतन आचार्य को अक्ष दिया जाता है। कुछ सामाचारी ग्रन्थों में 'सुगंधिआओ' पाठ है। इससे सूचित होता है कि सुगन्धित चूर्ण वाले अक्षतों के साथ स्थापनाचार्य देने की विधि होगी। वर्तमान की प्रचलित परम्परा में तीन मुट्ठी वासचूर्णयुक्त अक्षत दिए जाते हैं। यदि अक्ष का अर्थ सुगन्धियुक्त वासचूर्ण किया जाए तो वह भी युक्ति युक्त है क्योंकि उस समय नूतन आचार्य को सूरिमन्त्र का पट्ट दिया जाता है। इससे