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महत्तरापद स्थापना विधि का तात्त्विक स्वरूप...233 उसके हाथ में दो कम्बल परिमाण का आसन दें। तत्पश्चात उसी शुभ लग्न में चन्दन से अर्चित महत्तरा के दाएं कान में सम्पूर्ण वर्द्धमानविद्या को तीन बार सुनाएं।
फिर कोटिकगण, वज्रशाखा, चन्द्रकुल आदि पूर्व-परम्परा का नामोच्चारण करते हुए महत्तरा साध्वी का नया नामकरण करें।
उसके पश्चात गुरु आर्यचन्दना- मृगावती आदि जिन विशिष्ट गुणों से शोभित थीं तुम भी उन्हीं विशिष्ट गुणों से सुशोभित होना, ऐसा आशीर्वाद देकर नूतन महत्तरा को इस प्रकार शिक्षावचन कहें
शिक्षावचन - यह उत्तम पद लोकोत्तम जिनेश्वर भगवन्तों द्वारा प्ररूपित किया गया है, यह उत्तम फल को उत्पन्न करने वाला और उत्तम जनों के द्वारा आसेवित है।
धन्य आत्माओं को ही इस पद पर स्थापित किया जाता है, धन्य आत्माएं ही इस पद का अनुसरण करती हुई संसार समुद्र के पार पहुंचती हैं और संसार समुद्र से पार होकर सर्वदुःखों से मुक्त हो जाती हैं।
हे देवानुप्रिया! तुमने इस पद को प्राप्त कर लिया है। अब जिन गुरुत्तर गुणों को प्राप्त करने में समर्थ हो, उन गुणों की उत्तरोत्तर वृद्धि हो, ऐसा प्रयत्न सदैव करते रहना। ___ इस पद पर स्थित रहते हुए संवेग रस (वैराग्यभाव) का संवर्द्धन करना, क्योंकि इसके बिना तप द्वारा शरीर को कृश करना, बहुश्रुत का अभ्यास करना
और उपदेश दान करना आदि विफल है। __ हे वत्सा! जैसे सुयोग्य प्रवर्तिनी यथार्थ प्रवर्त्तिनी कहलाती है तुम भी प्रयत्नपूर्वक इन सभी साध्वियों की सच्ची प्रवर्तिनी बनना।
हे शिष्यप्रवरा! जिस प्रकार शुक्ल पक्ष का चन्द्रमा अपनी कलाओं को क्रमश: बढ़ाता हुआ बहुमूल्य मौक्तिक हार के समान धवलता को प्राप्त करता है उसी प्रकार तुम भी तथाविध गुणों से पूजित होकर इस लोक में धवलोज्ज्वल गुणों को प्राप्त करना।
हे शिष्या! तुम इन आर्याओं के लिए वज्रश्रृंखला, मंजूषा, दृढ़ घेरे और परकोटे के समान होना। यानी संयमधर्म की परिपालना में कठोर अनुशासन
रखना।
इस पद को मूंगे की लता, मोती की सीप एवं रत्नराशि के समान अत्यन्त मनोहर भाव से धारण करना, जलतरंग की भांति इसे वहन मत करना।