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प्रवर्त्तिनी पदस्थापना विधि का सर्वांगीण स्वरूप... 241
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प्रवर्त्तिनी या प्रवर्त्तिका का शाब्दिक अर्थ है प्रणेता, उन्नायिका, संस्कारदाता, संचालिका आदि।
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संस्कृत-हिन्दी कोश के अनुसार प्रगतिशील साध्वी, संघ को निरन्तर आगे बढ़ने-बढ़ाने वाली और सदैव सक्रिय रहने वाली प्रभावी साध्वी प्रवर्त्तिनी कहलाती है।
• प्राकृत - हिन्दी कोश में साध्वियों की अध्यक्षा को प्रवर्त्तिनी कहा है | 4 • स्थानांगटीका के अनुसार जो आचार्योपदिष्ट वैयावृत्य आदि कार्यों में सम्यक रूप से प्रवर्तित होती है अथवा उस कार्य को सुनियोजित रूप से सम्पादित करवाती है, वह प्रवर्त्तिनी है | 5
• बृहत्कल्पभाष्य की टीकानुसार प्रवर्त्तिनी आचार्य स्थानीय सकल साध्वियों की नायिका होती है । "
• व्यवहारभाष्य के अनुसार जो तप, नियम, विनय आदि गुणों से युक्त हो, ज्ञान - दर्शन - चारित्र में प्रवर्तन करती हो, संग्रह (शिष्याओं के लिए वस्त्रादि ग्रहण) एवं उपग्रह (उपकार) करने में कुशल हो वह प्रवर्त्तिनी कहलाती है। 7
इस प्रकार श्रमणी संघ का सम्यक संचालन, निश्रावर्ती साध्वी समुदाय को रत्नत्रय आदि में सतत प्रवृत्त एवं आचार्य कथित निर्देशों का समुचित अनुपालन करती हुई धर्मसंघ का उन्नयन करने वाली साध्वी प्रवर्त्तिनी कही जाती है। प्रवर्त्तिनीपद की उपादेयता
जैन श्रमणी संघ में प्रवर्त्तिनी को गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है। अतएव उसकी उपयोगिता अनेक दृष्टियों से रही हुई है।
किसी अपेक्षा श्रमण संघ में जो महत्त्व आचार्य का है, वही मूल्य श्रमणी संघ में महत्तरा या प्रवर्त्तिनी का होता है । यद्यपि आचार्य चतुर्विध संघ के नेता होते हैं, उन पर सकल संघ का उत्तरदायित्व होता है, वे साधु-साध्वियों के हित के लिए पूर्ण उत्तरदायी होते हैं, जबकि महत्तरा एवं प्रवर्त्तिनी का दायित्व साध्वीसमुदाय तक सीमित होता है फिर भी संचालन, प्रवर्त्तन आदि किञ्चित विशिष्टताओं से युक्त होने के कारण उसे आचार्य के समकक्ष माना गया है।
सामान्यतया पौरुषत्व के गुणों को छोड़कर प्रवर्त्तिनी उन सभी योग्यताओं से समन्वित होती हैं, जो आचार्य के लिए आवश्यक मानी गयी हैं। इस अपेक्षा