Book Title: Padarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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महत्तरापद स्थापना विधि का तात्त्विक स्वरूप... 237
सुकृत करने को प्राप्त
गच्छाचार प्रकीर्णक में इतना निर्देश भी मिलता है कि शीलवती, वाली, कुलीन, गम्भीर और गच्छ मान्य आर्यिका महत्तरा पद करती है | 20
वैदिक धर्म में इस तरह की पदव्यवस्था का कोई भी संकेत प्राप्त नहीं होता है। बौद्ध-परम्परा में भिक्षुणी से सन्दर्भित श्रामणेरी, थेरी, प्रवर्त्तिनी आदि कई पदों का उल्लेख है, किन्तु महत्तरापद का उल्लेख पढ़ने में नहीं आया है।
निष्कर्ष है कि यह पद व्यवस्था मुख्य रूप से जैन-परम्परा में ही विद्यमान है। इसी के साथ जैन - साहित्य में ही इस विषयक विधि सम्प्राप्त होती है। इस विधि का मूल स्वरूप भी लगभग समान है। कहीं-कहीं परम्परागत सामाचारी के कारण कुछ असमानताएँ परिलक्षित होती हैं।
उपसंहार
श्रमणी-संघ में महत्तरा का सर्वोपरि स्थान है। साध्वी समुदाय के विशिष्ट उत्तरदायित्वों का निर्वहन करने वाली साध्वी महत्तरा कहलाती है। जो साध्वी यथोक्त गुणों से युक्त होती है उसे ही इस पद पर नियुक्त किया जाता है।
इस पदस्थापन का मुख्य प्रयोजन साध्वी- समुदाय का सम्यक् संचालन करना है। यद्यपि आचार्य के नेतृत्व में ही धर्मसंघ का सफल संचालन होता है, साधु-साध्वी की संयमयात्रा निर्दोष रूप से गतिशील रहती है, किन्तु उनके द्वारा साध्वियों के प्रत्येक कार्य की देखरेख की जाये - यह सम्भव नहीं है । अत: उनके सम्यक् संचालन हेतु महत्तरापद की व्यवस्था है।
जैनाचार्यों के मतानुसार आचार्य के द्वारा ही पदयोग्य साध्वी का निर्धारण किया जाता है और इस पद सम्बन्धी विधि प्रक्रिया भी आचार्य द्वारा ही करवायी जाती है, परन्तु वर्तमान में यह पद आचार्य की अनुपस्थिति में उनके निर्देशानुसार अन्य पदस्थ मुनि एवं वरिष्ठ साध्वियों द्वारा भी दिया जाता है।
इस पद की उपादेयता के सम्बन्ध में विचार करते हैं तो स्पष्ट होता है कि गरिमा एवं पूज्यता की दृष्टि से मुनिसंघ में जो स्थान आचार्य का है, साध्वी संघ में वही स्थान महत्तरा का है, किन्तु योग्यता एवं शासन प्रभावना की दृष्टि से वह आचार्य से कनिष्ठ होती है। आचार्य के अधिकारों का दायरा विस्तृत होता है जबकि महत्तरा प्रमुख रूप से स्व आश्रित साध्वी- समुदाय एवं श्रावक-श्राविका वर्ग का ही नेतृत्व करती हैं।