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202...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में सूरिमन्त्र पट्ट की साधना का अधिकार प्राप्त होता है। गुरु परम्परागत वासचूर्ण पट्टपूजन में उपयोगी होने के कारण दिया जाता हो, तो भी वह अर्थ युक्ति संगत है।150 __पादलिप्तसूरि के अभिमतानुसार नूतन आचार्य को योगपट्ट और पादुका भी दी जाती है। ___नामकरण - तत्पश्चात नूतन आचार्य खमासमण सूत्रपूर्वक वन्दन करके कहे - "इच्छाकारेण तुन्भे अहं नामट्ठवणं करेह" हे भगवन्! आपकी इच्छा हो, तो मेरा नामकरण करें। तब गुरु पदग्राही शिष्य के मस्तक पर वासचूर्ण डालते हुए 'सूरि' शब्द पर्यन्त उसका नया नाम उद्घोषित करें।
गुरु-शिष्य का पारस्परिक वन्दन व्यवहार - उसके पश्चात गुरु अपने आसन से उठे और नूतन आचार्य को अपने आसन पर बिठाएं। यहाँ गुरु-शिष्य दोनों एक-दूसरे के आसन पर बैठें। फिर गुरु नूतन आचार्य को द्वादशावर्त्तवन्दन करें। यह वन्दन अब से हम दोनों समान गुण वाले हैं ऐसा भाव अभिव्यक्त करने के लिए किया जाता है। प्राचीन सामाचारी में कहा गया है कि “शिष्य का गुरु के आसन पर बैठना तथा गुरु द्वारा शिष्य को वन्दन करना।" ये दोनों क्रियाएँ गुरु-शिष्य के गुणों में समानता बताने के लिए की जाती हैं अत: वह दोनों के लिए दोष रूप नहीं है।151
फिर गुरु नूतन आचार्य से कहें - 'वक्खाणं करेह' व्याख्यान दो। तब नूतन आचार्य अपने ज्ञान सामर्थ्य के अनुरूप अथवा पर्षदा के अनुरूप नन्दी आदि का व्याख्यान दें। व्याख्यान के पश्चात चतुर्विध संघ नूतन आचार्य को वन्दन करें। तदनन्तर नूतन आचार्य गुरु के आसन से उठकर स्वयं के आसन पर बैठे।
नूतन आचार्य को हित शिक्षा - तत्पश्चात गुरु अपने आसन पर बैठकर नूतन आचार्य को हित शिक्षा दें। शिष्य घुटने के बल बैठकर शिक्षा वचन सुनें। सबसे पहले पदग्राही शिष्य का उत्साह बढ़े, इस प्रकार प्रेरणा रूप वचन कहते हैं
हे सत्पुरुष! संसाररूपी सागर को तारने वाली जो सद्धर्मरूपी नौका है उस नाव को तुम चलाने में निर्यामक (नेता) हो। मोक्ष पथिकों के लिए सार्थवाह हो और जो अज्ञानरूपी अन्धकार से अन्धे हैं उनके लिए चक्षु के समान हो।