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आचार्य पदस्थापना विधि का शास्त्रीय स्वरूप... 155
गुरु और शिष्य की चतुर्भंगी के आधार पर आचार्य के चार प्रकार
निम्न हैं 35
1. प्रव्राजनाचार्य, न उपस्थापनाचार्य
देने वाले होते हैं, किन्तु महाव्रतों का आरोपण नहीं करते हैं।
2. उपस्थापनाचार्य, न प्रव्राजनाचार्य कुछ आचार्य महाव्रतों का आरोपण करने वाले होते हैं, किन्तु प्रव्रज्या नहीं देते हैं।
3. प्रव्राजनाचार्य, उपस्थापनाचार्य
कुछ आचार्य दीक्षा देने वाले भी
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होते हैं और उपस्थापना करने वाले भी होते हैं।
कोई आचार्य प्रव्रज्या (दीक्षा)
4. न प्रव्राजनाचार्य न उपस्थापनाचार्य - कुछ आचार्य न दीक्षा देते हैं और न उपस्थापित करते हैं। वे धर्म के प्रतिबोधक होते हैं।
भाष्यकार ने इस सम्बन्ध में यह शंका उठायी है कि जो न प्रव्रज्या देता है और न उपस्थापना करता है वह आचार्य कैसे ? इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि यहाँ धर्माचार्य से आशय यह है कि जो धर्मोपदेश देता है, प्रथम धर्म में प्रेरित करता है। फिर चाहे वह गृहस्थ या श्रमण कोई भी हो ।
धर्माचार्य, प्रव्राजनाचार्य और उपस्थापनाचार्य - ये तीनों पृथक-पृथक भी हो सकते हैं और एक मुनि भी तीनों प्रकार का आचार्य हो सकता है 136 व्यवहारसूत्र के अनुसार आचार्य के निम्न चार प्रकार भी हैं 37
1. उद्देशनाचार्य, न वाचनाचार्य - कुछ आचार्य उद्देशनाचार्य (शिष्यों को सूत्र पढ़ने का आदेश ) देते हैं, किन्तु वाचनाचार्य ( पढ़ाने वाले) नहीं होते है । 2. वाचनाचार्य, न उद्देशनाचार्य कुछ आचार्य पढ़ाने वाले होते हैं, किन्तु पढ़ने-पढ़ाने का आदेश नहीं देते हैं।
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3. उद्देशनाचार्य, वाचनाचार्य कुछ आचार्य पढ़ने-पढ़ाने का आदेश और वाचना दोनों देते हैं।
4. न उद्देशनाचार्य, न वाचनाचार्य - कुछ आचार्य सूत्र पढ़ने-पढ़ाने का आदेश भी नहीं देते हैं और वाचना भी नहीं देते हैं, केवल धर्म का प्रतिबोध देते हैं।
इस प्रकार धर्माचार्य, उद्देशनाचार्य और वाचनाचार्य तीनों पृथक-पृथक भी हो सकते हैं अथवा एक भी हो सकते हैं।