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196...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
इससे परवर्ती उपांग- छेद- मूल आदि आगम सूत्रों का पर्यावलोकन किया जाए तो निश्चित रूप से कुछ विशिष्ट बिन्दु दृष्टिगत होते हैं। जैसेदशवैकालिकसूत्र135 में आचार्य की उपमाएं, आशातना के दुष्परिणाम आदि, व्यवहारसूत्र136 में आचार्य की प्रवास एवं विहार सम्बन्धी सामाचारी, आचार्य पदस्थ की योग्यता आदि, किन्तु प्रस्तुत विधि के सम्बन्ध में कुछ भी जानने को नहीं मिलता है।
यदि आगमिक व्याख्यामूलक साहित्य का आलोडन करते हैं तो इस सम्बन्ध में अपेक्षाकृत विस्तृत जानकारी तो उपलब्ध हो जाती है, परन्तु आचार्य पदस्थापना-विधि का सम्यक स्वरूप नहींवत है। यद्यपि व्यवहारभाष्य में नवनिर्वाचित आचार्य की अभिषेक विधि दर्शायी गयी है, परन्तु वह अति संक्षेप में है। इसके अतिरिक्त आवश्यकनियुक्ति, व्यवहारभाष्य, बृहत्कल्पभाष्य प्रभृति ग्रन्थों में आचार्य की परिभाषाएँ, उसकी आवश्यक योग्यताएँ, उनके छत्तीस गुण आदि का ही समुचित विवेचन है।
इस वर्णन से इतना सुस्पष्ट है कि विक्रम की 7वीं शती तक के ग्रन्थों में आचार्य का स्वरूप विविध रूपों में उल्लेखित है। तदुपरान्त योग्य मुनि को आचार्यपद पर किस तरह प्रतिष्ठित किया जाये, इस विधि का सामान्यत: अभाव ही है। सम्भवत: उस काल तक यह प्रक्रिया गुरु-शिष्य की मौखिक परिपाटी के रूप में प्रचलित रही होगी, इसी कारण इसका अभाव देखा जाता है।
जब हम ऐतिहासिक स्तर पर मध्यकालीन ग्रन्थों का अध्ययन करते हैं तो सर्वप्रथम यह विधि आचार्य हरिभद्र रचित 'पंचवस्तुक' में प्राप्त होती है।137 इसमें यह विधि अनुयोगाचार्य के नाम से उल्लेखित है। सिद्धान्तत: आगम सूत्रों के अर्थ का व्याख्यान-प्रतिपादन आचार्य ही करते हैं इसलिए इन्हें अनुयोगाचार्य' भी कहा जाता है। इसके अनन्तर यह विधि पादलिप्ताचार्यकृत निर्वाणकलिका,138 सामाचारीसंग्रह,139 पूर्वधर आचार्य विहित सामाचारी प्रकरण,140 तिलकाचार्यकृत सामाचारी,141 श्रीचन्द्राचार्यकृत सुबोधासामाचारी,142 जिनप्रभसूरिकृत विधिमार्गप्रपा,143 श्रीवर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर144 आदि ग्रन्थों में गुरु परम्परागत आम्नाय के अनुसार उल्लेखित है, किन्तु मूल स्वरूप पंचवस्तुक के अनुसार ही है केवल कहीं-कहीं सामाचारी भिन्नता है।