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194...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में आचार्यपद विधि की ऐतिहासिक अवधारणा
सत्पुरुषों द्वारा जो व्यवहार किया जाता है, वह आचार कहलाता है अथवा आदर योग्य वस्तु को आचार कहते हैं120 अथवा शास्त्रविहित आचरण आचार कहलाता है अथवा मोक्ष के लिए किया जाने वाला अनुष्ठान आचार कहलाता है। आचार भी दो प्रकार का प्रज्ञप्त है -
1. द्रव्याचार और 2. भावाचार।121
द्रव्य आचार सम्यक-असम्यक दोनों रूप होता है। भाव आचार सम्यक रूप ही होता है। वह पाँच प्रकार का निर्दिष्ट है
1. ज्ञान आचार 2. दर्शन आचार 3. चारित्र आचार 4. तप आचार 5. वीर्य आचार।122
आचार्य इन पाँच आचारों से सम्पन्न होते हैं। दशवैकालिक सूत्र में आचार सम्पन्न पुरुष के लक्षण बताते हुए कहा गया है कि वह जिनवचन में रत, प्रलाप रहित, सूत्रार्थ से परिपूर्ण, मोक्षार्थी, आचार समाधि के द्वारा इन्द्रियों का दमन करने वाले और मोक्ष के निकट रहने वाले होते हैं। अत: आचार सम्पन्न ही यथार्थ रूप से आचार्य है।123
इस पदस्थापना के सम्बन्ध में प्रागैतिहासिक दृष्टिकोण से अनुसन्धान करने पर कहा जा सकता है कि ईसा पूर्व 500 वर्ष से ईसा के 700 सौ वर्ष बाद तक के उपलब्ध साहित्य में यह पद-विधि लगभग नहीं है। आगमिक व्याख्याओं में नव-निर्वाचित आचार्य की पदस्थापना का उल्लेख जरूर है, परन्तु वह अति संक्षिप्त में ही ज्ञात होता है। यद्यपि आचार्य विषयक सामान्य विवरण आगमिक, व्याख्यामूलक एवं परवर्ती ग्रन्थों में देखा जाता है।
__ जैसे कि मूलागमों से सम्बन्धित आचारचूला में भिक्षाचरी मुनि द्वारा आहार वितरण हेतु अनुमति प्राप्त करने के सन्दर्भ में 'आचार्य' नाम का निर्देश है। इसका हार्द यह है कि भिक्षा प्राप्त मुनि असाधारण आहार उपलब्ध होने पर आचार्यादि के सन्निकट आकर निवेदन करे, यदि आपकी स्वीकृति हो तो अमुक साधुओं को इच्छित आहार दूं। इस तरह आचार्य को श्रेष्ठतम गुरु के रूप में स्वीकार किया गया है।124
इसमें आचार्यादि के साथ विहार करने पर उनके प्रति किस प्रकार की विनय-विधि का पालन किया जाये? शय्या-संस्तारक की प्रतिलेखना के क्रम में