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आचार्य पदस्थापना विधि का शास्त्रीय स्वरूप...
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वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आचार्यपद की प्रासंगिकता
आचार्यपद एक गरिमामय पद है। इस पद की महत्ता जिनशासन के इतिहास में अनेक स्थानों पर परिलक्षित होती है। आचार्य एक सक्षम नेता के रूप में गच्छ का संचालन एवं मार्गदर्शन करते हुए शासन उन्नति में सहायक बनते हैं।
यदि आचार्यपद का मनोवैज्ञानिक अनुशीलन किया जाए तो निम्न तथ्य सामने आते हैं। आचार्य दृढ़ मनोबल के कारण स्वयं शुद्ध आचरण करते हैं तथा समस्त श्रमण समुदाय को शुद्ध पंचाचार पालन में प्रवृत्त करते हैं। सफल मनो चिकित्सक की भाँति शिष्य की मानसिक स्थिति का परिज्ञान करने में समर्थ होने से तदनुसार वर्तन कर उन्हें विशुद्ध कोटि के धर्म मार्ग में प्रवृत्त करते हैं। आचार्य धैर्य, गांभीर्य आदि गुणों से युक्त होने के कारण उनके संपर्क में आने वाला विरोधी एवं उग्रस्वभावी व्यक्ति भी शांत मनःस्थिति को प्राप्त करता है। उनकी स्थिरता, जितेन्द्रियता, दृढ़ता, सौम्यता एवं कार्यशीलता सुप्त एवं प्रमादी जीवों को आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हुए मनोबल वृद्धि में सहायक बनती है। इसी प्रकार समस्त संघ में भी सृजनात्मक कार्यों को निष्पन्न करते हैं।
आचार्यपद के वैयक्तिक प्रभाव का अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि आचार्य मिथ्याग्रह को दूर करने वाले होते हैं अतः 'स्व' एवं 'पर' दोनों की गलत धारणाओं को दूर करते हैं। निश्चय और व्यवहार दोनों से समन्वित आचरण करने से लौकिक एवं लोकोत्तर कल्याण के कारक बनते हैं। इनकी सन्निधि में आने वाला तदनुरूप गुणों एवं नेतृत्व कला का विकास करता हैं। उदारहृदयी, क्रोधजयी, निरहंकारी, मधुर वक्ता होने से लोगों को धर्माभिमुख बनाने में आसानी होती है तथा स्वयं कषायों से निर्मल बनते हैं । आचार्य के ओजस्वी आभामंडल, बहुगुणी व्यक्तित्व एवं सार्वजनिक कर्तृत्व को देखकर कार्यक्षमता में स्वयमेव वर्धन हो जाता है। जिस प्रकार आचार्य भिन्नभिन्न स्वभाव वाले एवं अलग-अलग परिवारों से आए शिष्यों में समन्वय बनाकर रखते हैं एवं उन्हें विविध क्षेत्रों में पारंगत बनाते हैं वैसे ही प्रत्येक व्यक्ति अपने परिवार, कार्यालय आदि में भी समन्वय बनाकर रख सकता है तथा वैयक्तिक शांति एवं समाधि के साथ प्रतिष्ठा को भी प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार वैयक्तिक जीवन में आध्यात्मिक एवं व्यवहारिक उत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त होता है।