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182...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
2. लोकनिन्दा - सामान्यतया वाचनादाता आचार्य सभी तरह के लोगों के संशयों को दूर करते हैं इसलिए धर्म का विशेष ज्ञान प्राप्त करने के इच्छुकजन प्रायः उनके पास ही आते हैं। परन्तु जो वाचनाचार्य अल्पज्ञाता हो अथवा बन्ध-मोक्षादि तत्त्वों को नहीं जानता हो, वह आगत जिज्ञासुओं को बन्ध-मोक्ष जैसे सूक्ष्म तत्त्वों का स्वरूप कैसे समझा सकता है ? यदि वह जैसेतैसे कुछ स्पष्ट करने की चेष्टा करता है तो इससे लोक में जिनशासन की निन्दा होती है। जैसे कि विद्वान कहते हैं - यह जिनशासन असार है, क्योंकि प्रवचनकार ज्ञाता होने पर भी जैसे-तैसे बोलते हैं।
3. गुणहानि - जो आचार्य अज्ञानी हो, वह शिष्यों के लिए संसार का उच्छेद करने वाला और ज्ञानादि प्रधान गुणों की वृद्धि करने वाला कैसे हो सकता है ? क्योंकि जो स्वयं गुणसम्पत्ति से रहित है, वह अन्यों में गुणाधान नहीं कर सकता है। जैसे- दरिद्र व्यक्ति दूसरों को श्रीमन्त नहीं बना सकता है। दूसरी बात यह है कि उन्हें हेयोपादेय का ज्ञान न होने से शिष्यों में ज्ञानादि गुण की वृद्धि भी नहीं कर सकते हैं तथा अपने मिथ्या अभिमान के कारण अन्यों से भी अपने शिष्यों को ज्ञानार्जन नहीं करवाते हैं। इस प्रकार न केवल शिष्यों की, अपितु शिष्यों की दीर्घ-परम्परा में भी गुणहानि होती है।
4. तीर्थोच्छेद - अयोग्य मुनि को आचार्य पद पर स्थापित करने से तीर्थ का विच्छेद होता है। सर्वप्रथम तो अयोग्य आचार्य में ज्ञानादि गुणों का अभाव होने से उनके द्वारा किये गये सभी अनुष्ठान जिनाज्ञाविरुद्ध होते हैं, क्योंकि स्वानुमति से आचरित क्रियाएँ मोक्षरूपी फल की प्रदाता नहीं होती हैं। इस प्रकार अयोग्य गुरु के द्वारा प्रायः भिक्षाचर्यादि रूप द्रव्यलिंग की ही प्राप्ति होती है और उस द्रव्यलिंग के आधार पर अनेक अनर्थ होते हैं। परमार्थत: तीर्थ का विच्छेद हो जाता है। इसका कारण यह है कि तीर्थ का फल मोक्ष है और वह फल द्रव्यलिंग से प्राप्त नहीं होता है अतएव सुयोग्य गुरु, उस शिष्य को ही आचार्य पद पर नियुक्त करें, जो तत्त्व का ज्ञाता हो और सूत्रार्थ का सम्यक अध्ययन किया हुआ हो।
प्राचीन सामाचारी इस सन्दर्भ में कहती है कि सदगणी के अभाव में भी गुणहीन को आचार्यपद पर स्थापित नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसे मुनियों को सूरिपद देने वाला गुरु महान दोष का भागी होता है।92