Book Title: Padarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 233
________________ आचार्य पदस्थापना विधि का शास्त्रीय स्वरूप...175 (iii) अनिश्रित वचन - जो क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के वशीभूत होकर न बोलते हो। हमेशा शान्त चित्त से सबका हित करने वाला वचन कहते हो। (iv) असन्दिग्ध वचन - जो सर्वभाषा विशारद अथवा व्यक्त वचन बोलने वाले, स्पष्ट वचन बोलने वाले और निर्णायक शब्द का प्रयोग करने वाले हो अथवा श्रोता को किसी प्रकार सन्देह न रहे ऐसा अभीष्टार्थ वचन कहने वाले हो। 5. वाचना सम्पदा - बाह्य प्रभाव के साथ-साथ योग्य शिष्यों की सम्पदा भी आवश्यक है, क्योंकि सर्वगुण सम्पन्न अकेला व्यक्ति भी विस्तृत कार्य क्षेत्र में अधिक सफल नहीं हो सकता। अत: वाचना के द्वारा प्रतिभा सम्पन्न शिष्यों को तैयार किया जाता है। शिष्यों को शास्त्र आदि पढ़ाने की योग्यता होना वाचनासम्पदा है। इसके भी चार भेद हैं76 - (i) विचयोद्देश - विचय का अर्थ है- अनुप्रेक्षा, विचार, चिन्तन आदि। इसका स्पष्टार्थ यह है कि शिष्य विनय, उपशान्ति, जितेन्द्रियता आदि श्रुत ग्रहण योग्य प्रमुख गुणों से युक्त है या नहीं? तथा किस सूत्र का कितना पाठ या कितना अर्थ देने योग्य है ? इस प्रकार की अनुप्रेक्षा करके मूल पाठ एवं अर्थ की वाचना देने वाले हो। (ii) विचय वाचना – शिष्य की बुद्धि देखकर अथवा वह जितना ग्रहण कर सकता हो, उसके अनुसार पढ़ाने वाले हो। (iii) परिनिर्वाप्य वाचना - शिष्य को पहले दी गयी वाचना को पूर्ण हृदयंगम कराकर आगे की वाचना देने वाले हो अथवा पूर्व प्रदत्त वाचना की स्मृति का निरीक्षण-परीक्षण करके जितना उपयुक्त हो उतना पढ़ाने वाले हो। __ (iv) अर्थ निर्यापकत्व - अर्थ की संगति करते हुए पढ़ाते हो अथवा सूत्र के अर्थ और उसके पौर्वापर्य का बोध कराकर शिष्य को वाचना देते हो। 6. मतिसम्पदा - शिष्य भी विभिन्न तर्क, बुद्धि, रुचि, आचार वाले होते हैं, अत: आचार्य को सभी के योग्य बद्धि सम्पन्न होना आवश्यक है। मति का अर्थ है- बुद्धि। 1. औत्पातिकी 2. वैनयिकी 3. कार्मिकी और 4. पारिणामिकी - इन चारों प्रकार की बुद्धि से सम्पन्न होना मतिसम्पदा है। इसके चार प्रकार हैं

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