Book Title: Padarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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आचार्य पदस्थापना विधि का शास्त्रीय स्वरूप...159 इत्वरिक आचार्य की स्थापना करते समय संघ के प्रमुख एवं गच्छ के ज्येष्ठ मुनियों के समक्ष यह घोषणा करते हैं कि जब तक मुख्य आचार्य के पद पर योग्य शिष्य की स्थापना नहीं की जाए, तब तक यही आपका आचार्य रहेगा।
यावत्कथिक (जीवनपर्यन्त के लिए) आचार्य-स्थापना के दो हेतु इस प्रकार हैं44___ • पूर्व आचार्य अभ्युद्यत मरण के लिए द्वादश वर्षीय सल्लेखना धारण कर रहे हों।
• पूर्व आचार्य अभ्युद्यत विहार (जिनकल्प, परिहारकल्पादि) के लिए तपोभावना आदि रूप परिकर्म कर रहे हों। इन दो स्थितियों में पूर्व आचार्य स्वयं की विद्यमानता में ही उत्तर आचार्य की स्थापना कर दें, ताकि संघीय व्यवस्था समुचित रूप से प्रवर्तित हो सके। इसके अतिरिक्त मूलाचार्य स्वयं की मृत्यु को समीप जान लें या उन्हें कोई असाध्य रोग उत्पन्न हो जाये तो उस स्थिति में भी उत्तरवर्ती आचार्य की उद्घोषणा की जा सकती है।
इत्वरिक स्थापना अपवादमार्ग है, वैकल्पिक है। जबकि यावत्कथिक स्थापना उत्सर्गमार्ग और अवैकल्पिक है। इस तरह स्थापना की दृष्टि से दो प्रकार के आचार्य होते हैं। आचार्य का महिमा मंडन
जैन-साहित्य में आचार्य के महिमाशील व्यक्तित्व को उजागर करने वाले अनेक उपमान हैं। ____ दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि जिस प्रकार दिन में दीप्त होता हुआ सूर्य सम्पूर्ण भारत (भरतक्षेत्र) को प्रकाशित करता है उसी प्रकार श्रुत, शील और बुद्धि से सम्पन्न आचार्य विश्व को प्रकाशित करते हैं। जिस प्रकार देवताओं के बीच इन्द्र शोभित होता है, उसी प्रकार साधुओं के बीच आचार्य सुशोभित होते हैं।45 ___जिस प्रकार कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि में तारागण से घिरा हुआ चन्द्रमा शोभित होता है उसी प्रकार शिष्यों के बीच आचार्य शोभा पाते हैं।46 __ जैसे कमलों से परिमण्डित व पक्षियों से आसेवित सरोवर सुहावना लगता है वैसे ही गृहस्थों, परतीर्थिकों और जिज्ञासु साधुओं से निरन्तर आसेव्यमान आचार्य सुशोभित होते हैं।47