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आचार्य पदस्थापना विधि का शास्त्रीय स्वरूप...157 अज्ञानी हो, राज्य की उचित सम्भाल न करता हो, तो उस राजा से राज्य सारहीन हो जाता है उसी प्रकार गच्छ की सारणा न करने वाला आचार्य गच्छ को निस्सार बना देता है।
यहाँ प्रथम भंग उपद्रवयुक्त देश की तरह, दूसरा भंग अज्ञानी राजा की तरह और तीसरा भंग व्यसनी राजा की तरह त्याज्य है चौथा विकल्प शुद्ध है। आचार्य को चौथे विकल्प के समान होना चाहिए।40
दिगम्बर परम्परानुसार आचार्य के कुछ प्रकार निम्नलिखित हैं-1
1. गृहस्थाचार्य - व्रती श्रावक गृहस्थाचार्य कहलाता है। व्रती गृहस्थ आचार्य की भांति आदेश-उपदेश कर सकता है। गृहस्थाचार्य को आचार्य के सदृश दीक्षा दी जाती है।
2. एलाचार्य - दिगम्बर मत में उत्कृष्ट श्रावक के दो प्रकार मान्य हैं - 1. क्षुल्लक और 2. एलक। इन दोनों के कर्म निर्जरा उत्तरोत्तर अधिकाधिक होती है। एलक मात्र कौपीन धारण करता है, दाढ़ी-मूंछ एवं मस्तक की केशराशि का लोंच करता है और पीछी-कमण्डलू रखता है। कोपीन धारण के अतिरिक्त उसकी समस्त क्रियाएँ मनि के समान होती हैं। वह या तो किसी चैत्यालय में रहता है या मुनियों के संघ में रहता है अथवा किसी शून्य मठ में या अन्य निर्दोष-पवित्र स्थान में रहता है। मध्याह्नकाल में घरों की संख्या का नियम लेकर हाथ में ही आहार करता है। धर्मोपदेश देता है। बारह प्रकार का तपश्चरण करता है। व्रतादि में दोष लगने पर प्रायश्चित्त लेता है।
जिनेन्द्रवर्णी के अनुसार अचेलक का रूपान्तरित स्वरूप एलक है। एलक को आचार्य की तरह दीक्षा देना एलाचार्य है।
3. प्रतिष्ठाचार्य - वसुनन्दि श्रावकाचार के मतानुसार जो देश, कुल और जाति से शुद्ध हो, निरुपम अंग का धारक हो, विशुद्ध सम्यग्दृष्टि हो, प्रथमानुयोग में कुशल हो, प्रतिष्ठा की लक्षण-विधि का ज्ञाता हो, श्रावक गुणों से युक्त हो, उपासकाध्ययन नामक शास्त्र में स्थिर बुद्धि वाला हो, वह प्रतिष्ठाचार्य कहलाता है।
. बालाचार्य - जो आचार्य अपनी आयु को अल्प जानकर जिस शिष्य को अपने पद पर स्थापित करता है वह शिष्य बालाचार्य कहलाता है।