Book Title: Padarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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आचार्य पदस्थापना विधि का शास्त्रीय स्वरूप... 153
महाव्रतों से युक्त हैं, पंचाचार के अनुपालन में समर्थ हैं, अष्टप्रवचनमाता के आराधक हैं तथा कषाय चतुष्क से मुक्त हैं, ऐसे (5+9+5+5+5+3+4=36) छत्तीस गुणों से जो युक्त होते हैं वह आचार्य है।
दिगम्बर-1 र- परम्परा में आचार्य के छत्तीस गुणों के नामों को लेकर मतभेद हैं। भगवती आराधना में आचारवान आदि को आचार्य कहा है। बोधपाहुड़ में श्रुतवान, प्रायश्चित्त दानी आदि को आचार्य माना है । रत्नकरण्डक श्रावकाचार में बारह तप, छह आवश्यक, पांच आचार आदि से सम्पन्न मुनि को आचार्य की उपमा दी गई है।
जैन वाङ्गमय में आचार्य के विविध प्रकार
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जैन साहित्य में आचार्य के अनेक प्रकार उल्लिखित हैं। अभिधानराजेन्द्रकोश में आचार्य के निम्न तीन प्रकारों का वर्णन है । 31 1. कलाचार्य . बहत्तर कलाओं की शिक्षा देने वाले कलाचार्य कहलाते हैं। 2. शिल्पाचार्य शिल्प, विज्ञान आदि की शिक्षा देने वाले शिल्पाचार्य कहलाते हैं। 3. धर्माचार्य
धर्म स्वरूप का प्रतिबोध कराने वाले धर्माचार्य कहलाते हैं । इनमें प्रारम्भिक दो आचार्यों का महत्त्व बाह्य ज्ञान की दृष्टि से है वहीं धर्माचार्य का मूल्य आध्यात्मिक अपेक्षा से है। धर्माचार्य पांच प्रकार के कहे गये हैं32
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1. प्रव्राजकाचार्य सामायिक आदि व्रतों का आरोपण करवाने वाले प्रव्राजकाचार्य कहलाते हैं।
2. दिगाचार्य सचित्त (शिष्य-शिष्याएँ), अचित्त और मिश्र वस्तु (वस्त्रादियुक्त शिष्य - शिष्याएँ) ग्रहण करने की एवं विहार आदि की आज्ञा प्रदान करने वाले दिगाचार्य कहलाते हैं।
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3. उद्देशाचार्य श्रुत का प्रारम्भिक उपदेश देने वाले तथा मूलागमों का अध्ययन कराने वाले उद्देशाचार्य कहलाते हैं।
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4. समुद्देशाचार्य - श्रुत की गम्भीर वाचना देने वाले और श्रुत में स्थिर करने वाले समुद्देशाचार्य कहलाते हैं।
5. आम्नाचार्य (वाचकाचार्य) - उत्सर्ग और अपवाद रूप सूत्रार्थ का प्रतिपादन करने वाले वाचकाचार्य कहलाते हैं।