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152...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
___32.) इकतीस सिद्ध के गुण एवं पांच ज्ञान के स्वरूप के ज्ञाता होने से (31+5 = 36) गुणधारी हैं।
33.) बत्तीस प्रकार के जीव के भेद एवं चार प्रकार के उपसर्ग स्वरूप को जानने वाले होने से (32+4 = 36) गुणधारी हैं।
__34.) वन्दन के बत्तीस दोष एवं चार प्रकार की विकथा के त्यागी होने से (32+4 = 36) गुणधारी हैं।
___35.) गुरु की तैंतीस आशातना के परिहारी एवं तीन प्रकार के वीर्याचार में उद्यमी होने से (33+3 = 36) गणधारी हैं।
36.) बत्तीस प्रकार की गणिसम्पदा के धारक एवं चार प्रकार के विनय स्वरूप के ज्ञाता होने से (32+4 = 36) गुणधारी हैं।
भगवती आराधना के अनुसार आचार्य आचारवान, आधारवान, व्यवहारवान, कर्ता, आयापायदर्शनोद्योत, उत्पीलक, अपरिस्रावी, निर्वापक, प्रसिद्ध, कीर्तिमान और निर्यापक गुणों से परिपूर्ण होते हैं।27
बोधपाहुड टीका के अनुसार आचार्य आचारवान, श्रुताधार, प्रायश्चित्त ज्ञाता, आसनादिहः (आचार्य पद पर बैठने योग्य), आयापायकथी, दोषाभावक, अस्रावक, सन्तोषकारी, निर्यापक- इन आठ गुणों तथा अनुद्दिष्टभोजी, शय्यासान, आरोगभुक, क्रियायुक्त, व्रतवान, ज्येष्ठ सद्गुणी, प्रतिक्रमी, षण्मासयोगी, द्विनिषद्यक, बारह तप के आचरण कर्ता और छह आवश्यक के पालन कर्ता- इन छत्तीस गुणों से युक्त होते हैं।28 ___ अनगारधर्मामृत में बताया गया है कि आचार्य आचारत्व- आधारत्व आदि आठ, बारह प्रकार के तप, आचेलक्य आदि दस स्थितिकल्प और छह आवश्यक (8+12+10+6 = 36) इन छत्तीस गुणों से समायुक्त होते हैं।29
रत्नकरण्डकश्रावकाचार के अनुसार आचार्य बारह तप, छह आवश्यक, पांच आचार, दस धर्म, तीन गुप्ति (12+6+5+10+3 = 36) इन छत्तीस गुणों से सम्पन्न होते हैं।30
निष्पत्ति – हम देखते हैं कि जैन धर्म की श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों ही धाराओं में आचार्य के छत्तीस गुण स्वीकृत हैं, यद्यपि संख्या में समरूपता होने पर भी नाम एवं क्रम में विभिन्नता है। श्वेताम्बर परम्परानुसार जो पाँच इन्द्रियों को नियन्त्रित रखते हैं, नौ वाड़ से विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, पाँच