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गणिपद स्थापना विधि का रहस्यमयी स्वरूप...89 पंचवस्तुक में यह भी कहा गया है कि अयोग्य को गणानुज्ञा-पद पर स्थापित करने से लोकनिन्दा होती है और जनसाधारण में यह धारणा बन जाती है कि जब गुरु ही उपयोग, विवेक एवं बुद्धि रहित है तो शिष्य उससे भी अधिक गुणहीन होंगे। अयोग्य को इस पर स्थापित करने से दूसरा दोष यह संभव है कि मन्द बुद्धि जीव गणधर आदि के गुणों के प्रति अनादर भाव रखने लगे और यह सोचे कि गुणहीन व्यक्ति भी गणधरपद पर स्थित हो सकते हैं। इससे मूल परम्परा का व्यवच्छेद होता है।
अयोग्य को गणधर पद पर प्रतिष्ठित करने से विशिष्ट गुणों का हनन होता है और पदग्राही स्वयं भी विपुल कर्मों का उपार्जन करता है।12 __इस तरह अयोग्य को पद स्थापित करने वाला गुरु स्वयं तो महापाप करता ही है वह शिष्य का भी अनर्थ और अहित करता है। शिष्य को अहित में प्रवृत्त करने से जिनाज्ञा का उल्लंघन करता है और इससे गुरु स्वयं की आत्मा का भी अहित कर लेता है।
व्यवहारभाष्य के निर्देशानुसार जिसने उत्सर्ग-अपवाद रूप सूत्र और अर्थ को भलीभाँति नहीं समझा है, श्रुतसम्पदा से हीन है, वह यदि गणधारण करता है, तो क्रमश: चतुर्लघु और चतुर्गुरु प्रायश्चित्त का भागी होता है। इसका कारण यह है कि गणधारक यदि सूत्र ज्ञाता हो तो वह वाचना दे सकता है तथा अर्थ ज्ञाता हो तो प्रायश्चित्त द्वारा स्व-पर की शुद्धि कर सकता है। यदि सूत्रादि ज्ञान के बिना वाचना दी जाए तो अविश्वास ही उत्पन्न होता है।13 इसलिए गीतार्थ गुरुओं द्वारा यथोक्त गुण सम्पन्न मुनि को ही गणिपद पर नियुक्त किया जाना चाहिए। गणिपदस्थ के लिए आवश्यक योग्यताएँ
गणि जैन-परम्परा का विशिष्ट पद है अत: इस पर आरूढ़ होने वाला शिष्य अनेक गुणों से समलंकृत होना चाहिए।
व्यवहारसूत्र के मतानुसार गणधारण करने वाला मुनि श्रुतसम्पदा एवं शिष्य सम्पदा से युक्त होना चाहिए।14 जिस मुनि ने सामान्य रूप से आवश्यकसूत्र, दशवैकालिकसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, आचारांगसूत्र एवं निशीथसूत्र मूल एवं अर्थ की दृष्टि से अध्ययन कर लिया है वह श्रुत सम्पन्न कहलाता है तथा एक या अनेक शिष्यों को प्रव्रजित करने वाला शिष्य सम्पन्न कहा जाता है।