________________
96...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
जब हम टीका साहित्य अथवा उससे परवर्ती साहित्य का अवलोकन करते हैं तब सबसे पहले गणानुज्ञा-विधि का समुचित स्वरूप आचार्य हरिभद्रसूरि कृत पंचवस्तुक में दृष्टिगत होता है।31 आचार्य हरिभद्रसूरि ने गणानुज्ञा के योग्य-अयोग्य कौन, अयोग्य को गणनायक पद पर आरूढ़ करने से लगने वाले दोष आदि का भी विवेचन किया है। इसके पश्चात यह विधि प्राचीनसामाचारी,32 सुबोधासामाचारी,33 विधिमार्गप्रपा34 एवं आचारदिनकर35 में परिलक्षित होती है। आचारदिनकर में इसे वाचनाचार्य के समान सम्पादित करने का निर्देश दिया गया है तथा उसके अतिरिक्त कृत्यों का भी सूचन किया है, स्वतन्त्र रूप से इसका वर्णन प्राप्त नहीं है। यह विधि पंचवस्तुक, प्राचीनसामाचारी आदि की अपेक्षा विधिमार्गप्रपा में अधिक स्पष्टता के साथ उल्लिखित है अत: यहाँ गणिपदानुज्ञाविधि इसी ग्रन्थ के आधार पर प्रतिपादित करेंगे। इसके अनन्तर तत्सम्बन्धी कोई अन्य मौलिक या संकलित ग्रन्थ देखने में नहीं आया है। गणिपद की स्थापना विधि
आचार्य जिनप्रभसूरि रचित विधिमार्गप्रपा के अनुसार गणानुज्ञा-विधि निम्नलिखित हैं36 -
वासदान - सर्वप्रथम शुभ मुहूर्त के दिन जिनालय, उपाश्रय या पवित्र स्थान पर नन्दी रचना करवायें। फिर उस जगह स्थापनाचार्य की स्थापना करें। पददाता गुरु का आसन बिछायें। उसके बाद गणधारण करने वाला शिष्य गुरु के वामपार्श्व में स्थित हो, एक खमासमणसूत्र पूर्वक वन्दन करके कहे - "इच्छाकारेण तुब्भे अम्हं दिगाइअणुजाणावणत्थं वासनिक्खेवं करेह' हे भगवन्। आपकी इच्छा हो, तो दिशादि (पदयात्रा आदि) की अनुमति देने हेतु आप मुझ पर वासचूर्ण का क्षेपण करें। तब गुरु शिष्य के उत्तमांग पर वासचूर्ण डालें।
देववन्दन - तदनन्तर भावी गणधारक एक खमासमण देकर कहें"इच्छाकारेण तुन्भे अम्हं दिगाइ अणुजाणावणियं नंदिकड्डावणियं देवे वंदावेह' - हे भगवन्। आपकी इच्छा हो, तो दिशादि की अनुमति प्रदान करने एवं नन्दी पाठ सुनाने के लिए मुझे देववन्दन करवाईए। उस समय गुरु पदग्राही शिष्य को अपनी बायीं ओर बिठाकर, जिनमें उच्चारण व अक्षर क्रमश: बढ़ते हुये हों ऐसी चार स्तुतियों द्वारा देववन्दन करवायें।