________________
120... पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
दोष - व्यवहारभाष्य में पूर्व निर्दिष्ट अतिशयों के अतिक्रमण से उत्पन्न दोषों का भी विवेचन है। भिक्षुआगमकोश के अनुसार उसका संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है44_
1. यदि आचार्य धूलयुक्त पैरों का यतनापूर्वक प्रमार्जन नहीं करें और चरण धूलि तपस्वी आदि मुनियों पर गिर जाएं तो वे कुपित होकर दूसरे गच्छ में जा सकते हैं।
2. आचार्य या उपाध्याय शौच कर्म के लिए एक बार बाहर जाएं तब तो उचित है, किन्तु बार-बार बाहर जाने से निम्न दोष उत्पन्न हो सकते हैं। जिस रास्ते से आचार्य जाते हैं, उस रास्ते में व्यापारी श्रावक आदि की दुकाने हो तो वे आचार्य को देखकर उठते हैं, वन्दन करते हैं। यह देखकर दूसरे लोगों के मन में भी उनके प्रति पूजा-सत्कार के भाव उत्पन्न होते हैं, किन्तु बार-बार जाने से वे लोग उन्हें देखते हुए भी नहीं देखने वालों की तरह मुंह मोड़कर वैसे ही बैठे रहेंगे। इस तरह का वर्तन देखकर अन्य लोग भी पूजा - सत्कार करना छोड़ देंगे । इससे सूत्र और अर्थ की परिहानि हो सकती है । उपाश्रय में समागत धर्मनिष्ठ व्यक्ति धर्मश्रवण और व्रतग्रहण से वंचित रह सकते हैं।
3. तीसरा अतिशय सेवा की ऐच्छिकता है। आचार्य का कार्य है कि वे सूत्र, अर्थ, मन्त्र, विद्या, योगशास्त्र आदि का परावर्तन करें तथा उनका गण में प्रवर्त्तन करें। सेवा आदि में प्रवृत्त होने पर इन कार्यों में विक्षेप आ सकता है।
4- 5. आचार्य को विशिष्ट ध्यान साधना करनी हो या मन्त्र - विद्यादि को सिद्ध करना हो तो अकेले रह सकते हैं। फिर छेदसूत्र आदि रहस्यपूर्ण सूत्रों के गुणन-पठन के लिए एकान्त स्थान अपेक्षित होता है। कारण, अपरिणामक और अतिपरिणामक शिष्य रहस्यों को सुनकर अनर्थ कर सकते हैं। अयोग्य व्यक्ति मन्त्र आदि को सुनकर उसका दुरूपयोग कर सकता है। जनसंकुल स्थान हो तो ध्यानादि साधना में विक्षेप भी हो सकता है। अतः पूर्वोक्त अतिशय आचार्य एवं उपाध्याय हेतु अवश्य आचरणीय हैं।
उपाध्याय की विहार - वर्षावास सम्बन्धी सामाचारी
आगम मत के अनुसार आचार्य - उपाध्याय को हेमन्त ऋतु और ग्रीष्म ऋतु में अकेले विहार नहीं करना चाहिए, उनके लिए एकाकी विहार का निषेध है। सामान्यतया वे एक साधु के साथ ऐसे कुल दो साधु विहार कर सकते हैं।