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उपाध्याय पदस्थापना विधि का वैज्ञानिक स्वरूप...127 जिस प्रकार अंधेरे में स्थित व्यक्ति को कोई भी पदार्थ दिखाई नहीं देता है, उसी प्रकार अज्ञान-मिथ्यात्व से ग्रस्त मानव आत्मा के स्वाभाविक गुणों की पहचान नहीं कर पाता है । उपाध्याय अज्ञान रूपी अंधकार को दूर कर ज्ञान नेत्र प्रदान करते हैं। शिक्षार्थी के जीवन को चरम लक्ष्य तक पहुँचाने में उपाध्याय सदैव आदर्श रहे हैं।
प्राचीन काल में आचार एवं व्यवहार की शिक्षा आध्यात्मिक मूल्यों एवं शास्त्रीय ज्ञान के आधार पर दी जाती थी। बालक आध्यात्मिक ज्ञान एवं मानवीय मूल्यों से ओत-प्रोत शिक्षाएँ उपाध्याय सदृश गुरुजनों की छत्रछाया में रहकर प्राप्त करते थे। उपाध्याय (शिक्षक) के चारित्रिक बल का प्रभाव होता था कि शिष्यगण बौद्धिक, मानसिक एवं भावनात्मक विकास प्राप्त कर आध्यात्मिक उत्कर्ष की प्राप्ति हेतु तत्पर रहते थे। वास्तव में विद्यार्थी का पूर्ण शिक्षाक्रम चारित्र शुद्धि पर आधारित होता था। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह शिक्षा के विशेष अंग थे। सन्तोष, शुचिता, निश्छलता, जितेन्द्रियता, मितभाषण आदि शिक्षा के मुख्य प्रयोजन थे। पाठक गुरु विद्यार्थी की समस्त जिम्मेदारियाँ अपने कर्तव्य के रूप में स्वीकारते थे। इस तरह विद्यार्थी गुरुकुल में केवल शिक्षण ही प्राप्त नहीं करता था, अपितु सफल जीवन जीने का राजमार्ग भी प्राप्त करता था। वर्तमान में योगोद्वहन, वाचना आदि इसी के व्यापक रूप हैं।
यहाँ विवेच्य यह है कि जैन इतिहास-क्रम में उपाध्याय का स्वरूप किस रूप में प्राप्त है? यदि हम गहराई से अध्ययन करें तो सुज्ञात होता है कि तीर्थंकर प्रणीत मूलागम, श्रुतधरों द्वारा रचित आगमिक व्याख्याएँ एवं जैनाचार्यों द्वारा लिखित परवर्ती साहित्य आदि सभी में इस विषयक सन्दर्भ एवं अपेक्षित सामग्री उपलब्ध है।
· जब हम मूल आगमों को देखते हैं तब आचारचूला में सर्वप्रथम आहार वितरण हेतु अनुमति प्राप्त करने के सम्बन्ध में 'उपाध्याय' का नाम निर्दिष्ट है। उस पाठांश का सार यह है कि भिक्षाचरी मुनि असाधारण आहार प्राप्त होने पर गुरुजनों के समीप आएं तथा आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर या गणावच्छेदक से निवेदन पूर्वक कहें-यदि आपकी अनुमति हो तो मैं अमुक मुनियों को पर्याप्त आहार दूं।52 इस प्रकार उपाध्याय को श्रेष्ठ गुरु के रूप में उल्लिखित किया गया है।