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उपाध्याय पदस्थापना विधि का वैज्ञानिक स्वरूप...137
उपसंहार
जिस गच्छ का साधु-साध्वी वर्ग विशाल हो, जिसमें अनेक संघाटक अलग-अलग विचरते हों अथवा जिस गच्छ में नवदीक्षित, बाल या तरूण साध-साध्वियाँ हों, वहाँ अनेक पदवीधरों का होना अनिवार्य है तथा कम से कम आचार्य- उपाध्याय इन दो पदवीधरों का होना तो नितान्त आवश्यक है। ___ उपाध्याय का मुख्य उत्तरदायित्व अध्ययन करवाना है, जिसमें शिष्यों के अध्ययन सम्बन्धी व्यवस्था की देख-रेख उन्हें करनी पड़ती है अत: इस पद के लिए जघन्यतम तीन वर्ष का दीक्षा पर्याय होना आवश्यक कहा गया है।
वस्तुत: जैन संघ में आचार्य के तुल्य ही उपाध्याय का महत्त्व है। संघव्यवस्था की दृष्टि से भले ही उपाध्याय का स्थान आचार्य के पश्चात् हो, परन्तु जो गौरव आचार्य को प्राप्त है वही उपाध्याय को दिया जाता है जैसे आचार्य के पाँच अतिशय हैं तो उपाध्याय के भी वही पाँच अतिशय हैं। शासन-व्यवस्था की अपेक्षा आचार्य की महत्ता है तो यथार्थ ज्ञान को प्रसरित, विकसित एवं उपकारी बनाने में उपाध्याय का अग्रणी स्थान है। इसी हेतु से आचार्य एवं उपाध्याय इन पदों का बहुत-सी जगह पर एक साथ कथन किया गया है। __ इसका आशय यह भी है कि ये दोनों पदवीधर गच्छ में बाह्य एवं आभ्यन्तर ऋद्धि सम्पन्न होते हैं तथा इन दोनों पदवीधरों का प्रत्येक गच्छ में होना नितान्त आवश्यक है। सन्दर्भ-सूची 1. संस्कृत-हिन्दी कोश, पृ. 215 2. बृहत्-हिन्दी कोश, पृ. 199 3. पाइयसद्दमहण्णवो, पृ. 175 4. 'उति उवगरण 'वे' ति, वेयज्झाणस्स होइ निद्देसे। एएण होइ उज्झा, एसो अण्णो वि पज्जाओ।।
अभिधानराजेन्द्रकोश, भा. 2, पृ. 883 5. आवश्यक टीका, पृ. 883 6. उपाध्याय अध्यापकः। आचारांग टीका सूत्र, 279 7. भगवतीआराधना, विजयोदयाटीका, पृ. 86