Book Title: Padarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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118... पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
सारांश यह है कि सामान्य अवधारणा से उपलब्ध निशीथसूत्र को आगम और व्याख्याओं में ‘आचारप्रकल्प' कहा गया है और दूसरी धारणा के •अनुसार उपलब्ध आचारांग और निशीथसूत्र दोनों को मिलाकर आचारप्रकल्प कहा गया है। तत्त्वतः ये दोनों एक ही सूत्र के दो विभाग हैं। 37
प्राचीनसामाचारी में सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक् चारित्र से युक्त, सूत्रार्थ ज्ञाता एवं आचार्य पद के योग्य शिष्य को उपाध्याय पद का अधिकारी बतलाया है। 38
विधिमार्गप्रपा के अनुसार जो शिष्य उपलब्ध आहार-पानी की सारणावारणा आदि गुणों से रहित होने पर भी समग्र सूत्रों के अर्थ ग्रहण, धारण और व्याख्यान करने में गुणवंत है, वाचना दान करने में सतत अपरिश्रान्त है, प्रशान्त है और आचार्य पद के योग्य है उसे उपाध्याय पद दिया जाना चाहिए | 39 निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आचारकुशल आदि गुणों से युक्त, अखण्ड चारित्र का धारक, बहुश्रुती, आचार प्रकल्प का ज्ञाता आदि गुणों से परिपूर्ण मुनि उपाध्यायपद के योग्य है।
उपाध्याय पददान का अधिकारी कौन?
विधिमार्गप्रपा, आचारदिनकर आदि ग्रन्थों के संकेतानुसार इस पद पर आरूढ़ करने का अधिकारी आचार्य होता है। वर्तमान परम्परा में भी सामान्यतया यही नियम प्रचलित है। जहाँ आचार्य का अभाव हो वहाँ उपाध्याय, पन्यास, गणी आदि द्वारा तथा उनके अभाव में आचार्य के निर्देशानुसार एवं चतुर्विध संघ की सहमति से सामान्य मुनियों द्वारा भी यह पद दिया जाता है।
ध्यातव्य है कि इस पद का मुख्य अधिकारी आचार्य विशिष्ट गुणों से मण्डित होना चाहिए। इसकी चर्चा आचार्यपदस्थापना विधि अध्याय-8 में करेंगे। उपाध्याय के अतिशय
व्यवहारसूत्र में आचार्य और उपाध्याय के पाँच अतिशय बताये गये हैं, जो उनकी अनुपम विशेषताओं के द्योतक हैं तथा ये कृत्य सामान्य साधुओं के लिए वर्ण्य भी हैं
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1. आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के अन्दर धूल से भरे हुए पैरों को प्रमार्जित करें तो मर्यादा (जिनाज्ञा) का उल्लंघन नहीं होता है ।