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गणिपद स्थापना विधि का रहस्यमयी स्वरूप...93 वृद्ध के लिए आहार-वस्त्र आदि का संग्रह करता है तथा उन्हें वात्सल्य भाव से प्रशिक्षित करता है। मेधावी साधु को अपरिश्रान्त भाव से पढ़ाता है। वक्र स्वभावी के साथ इतना मृदु व्यवहार करता है कि वह उसके वशीभूत होकर अपनी कठोरता-आग्रह बुद्धि का त्याग कर देता है।
संक्षेप में कहें तो जो मुनि क्षुल्लक, स्थविर, तरूण और खग्गूड इन चारों को सूत्र पढ़ाने में सफल होता है, उसे सूत्रमण्डली सौंपी जाती है तथा जो गच्छवर्ती साधुओं और आगत साधुओं को निराबाध रूप से वाचना देता है मूल आचार्य द्वारा उसे ही गण सुपुर्द किया जाता है। गणधारण से पूर्व की सामाचारी
गच्छनायकपद गण के स्थविर देते हैं या वर्तमान आचार्य की आज्ञा से यह पद दिया जाता है अथवा गच्छ के साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध संघ मिलकर यह पद देते हैं, किन्तु कोई भिक्षु स्वयं ही गणिपद लेना चाहे तो भी स्थविर (गच्छमहत्तर) को पूछना या उनकी अनुमति लेना आवश्यक है। स्थविर की अनुज्ञा के बिना गणधारण करने वाला छेद या परिहार प्रायश्चित्त का भागी बनता है।
कोई साधु मूल आचार्य के कालगत होने पर यह सोच लें कि मेरे आचार्य तो भावत: मुझे आचार्य बना चुके हैं, अब स्थविरों से क्या पूछना है ? ऐसा सोचकर जो स्वयं दिग्बंध (आचार्यत्व) स्वीकार कर लेता है और स्थविर की अनुज्ञा प्राप्त नहीं करता, तो उसे स्थविर सचेत करते हैं कि ऐसा करना जिनाज्ञा नहीं है।' प्रतिषेध करने पर भी वह अपने पद को परित्यक्त नहीं करता है, तो उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि स्थविर उपेक्षा करें तो वे भी चतुर्गुरु प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। ___आशय यह है कि कोई श्रुतसम्पन्न, योग्य भिक्षु भी स्वेच्छा से गणिपद पर आरूढ़ नहीं हो सकता, किन्तु गण के स्थविरों की अनुमति प्राप्त कर गणधारण कर सकता है। यदि वे स्थविर किसी कारण से अनुज्ञा न दें, तो उसे गण धारण नहीं करना चाहिए एवं योग्य अवसर की प्रतिक्षा करनी चाहिए।
यहाँ 'स्थविर' शब्द से आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक आदि आज्ञा प्रदाता अधिकारी मुनि समझने चाहिए। स्थविर शब्द अति व्यापक अर्थ वाला है। इसमें सभी पदवीधर और अधिकारी गणस्थ मुनियों का समावेश हो जाता है। जैनागमों