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गणिपद स्थापना विधि का रहस्यमयी स्वरूप...91 के न होने पर द्रव्य पलिच्छन्न (शिष्य संपदा) का भी अभाव हो जाता है। इसका मुख्य कारण यह है कि उसके शिष्य सूत्रार्थ से अप्रतिबद्ध होकर अपना पराभव मानते हैं फलत:गण से वियुक्त हो जाते हैं।19 इस तरह गणि पदस्थ मुनि साधु द्रव्यसंग्रह (शिष्य, उपाधि आदि) और भावसंग्रह (बुद्धि, श्रुत आदि) से विभूषित होना चाहिए। ____ आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार जो सूत्र-अर्थ के प्रतिपादन में कुशल हो, धर्म में प्रीति रखता हो, दृढ़ मनोबली हो, संयम के अनुकूल प्रवृत्ति करवाने में सक्षम हो, उत्तम जाति (मातृपक्ष) और उत्तमकुल (पितृपक्ष) में उत्पन्न हुआ हो, उदार हृदयी हो, शुभाशुभ निमित्तों में प्रसन्न रहता हो, लब्धिमान अर्थात शिष्यों के लिए. संयम उपयोगी उपकरण आदि प्राप्त कराने की लब्धि वाला हो, उपदेश-दान आदि से शिष्यादि का संग्रह करने में तत्पर हो, वस्त्रदान आदि से शिष्यों का उपकार करने में निरत हो, प्रतिलेखनादि क्रियाओं का अभ्यासी हो, प्रवचन का अनुरागी हो और स्वभावत: परोपकार करने की प्रवृत्ति वाला हो इत्यादि गुणों से परिपूर्ण मुनि गणधारण के योग्य होता है।20 ___ आचार्य जिनप्रभसूरि ने भी उक्त गुणों से सम्पन्न मुनि को ही गणधारण के योग्य बतलाया है।21 उपाध्याय मानविजयजी ने भी इसी मत का समर्थन किया है।22 आचार्य वर्धमानसूरि ने गणनायक का उत्तम पद आचार्य सदृश गुणों से युक्त मुनि को देने का निर्देश किया है।23 गणिपद हेतु शुभ मुहूर्त विचार
गच्छनायक पद किन शुभ मुहूर्तादि में प्रदान किया जाना चाहिए? इस सम्बन्ध में स्पष्ट जानकारी किसी भी ग्रन्थ से उपलब्ध नहीं हो पाई है।
प्राचीनसामाचारी, विधिमार्गप्रपा, आचारदिनकर आदि में इस पदस्थापना के लिए इतना संकेत अवश्य है कि यह पदोत्सव शुभ तिथि, शुभ योग, शुभ करण आदि से युक्त श्रेष्ठकाल में किया जाना चाहिए, किन्तु वह शुभ नक्षत्र आदि कौन-कौन से हो सकते हैं? इसका स्पष्टीकरण नहीं किया गया है।
सामान्यतया गच्छनायक आचार्य से वरिष्ठ होते हैं अत: आचार्य पद स्थापना हेतु जो नक्षत्र आदि उत्तम कहे गये हैं, उन्हें गणिपद के लिए भी श्रेष्ठ समझना चाहिए।