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गणिपद स्थापना विधि का रहस्यमयी स्वरूप... 85
गणि- गणधर पद की उपादेयता
जिनशासन में गणि- गणधरपद की आवश्यकता किन उद्देश्यों को लेकर रही हुई है? यदि इस बिन्दु पर विचार किया जाए तो ज्ञात होता है कि गणि शासन व्यवस्था की दृष्टि से विशेष उपकारी होते हैं और गणधर आगम रचना की तुलना से महान उपकारक हैं। गणि, गणधर प्रवर्तित परम्परा का सम्यक् निर्वाह करते हैं।
तीर्थङ्कर, गणधर, गणि, आचार्य, उपाध्याय आदि क्रमश: पूर्व - पूर्व की परिपाटी का अनुवर्त्तन करते हुए चतुर्विध संघ रूपी तीर्थ की अद्भुत प्रभावना करते हैं। जैसे अरिहन्त परमात्मा तप, संयम और ज्ञानरूपी वृक्ष पर आरूढ़ होकर भव्यात्माओं को जागृत करने के लिए ज्ञान वृष्टि करते हैं। गणधर उस वृष्टि को बुद्धि रूपी पट में समग्रता से ग्रहण कर अर्थात तीर्थङ्कर प्ररूपित वाणी को धारण कर शासन हितार्थ आगम-शास्त्रों की रचना करते हैं।
आगम रचना के माध्यम से इस पद की उपयोगिता पंचविध हेतुओं से सिद्ध होती है
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1. तीर्थङ्कर की वाणी पद, वाक्य, प्रकरण, अध्याय, प्राभृत आदि के रूप में व्यवस्थित हो जाने से श्रुत का सुख पूर्वक ग्रहण होता है ।
2. सूत्रादि की सुगमता से गणना की जा सकती है।
3. सूत्रबद्ध श्रुत की दीर्घकाल तक स्मृति बनी रह सकती है।
4. ज्ञानदान में तथा प्रश्न पूछने में सुविधा रहती है।
5. द्वादशांगी की अविच्छिन्नता बनी रहती है।
विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार भी गणधरपद की विद्यमानता से श्रुत की अव्यवच्छित्ति (अखण्डता) बनी रहती हैं, मर्यादा का अनुपालन होता है और आचार परम्परा का संवहन होता है ।
गणधरपद की उपादेयता इस दृष्टि से भी कही जा सकती है कि तीर्थङ्कर जब प्रथम पौरूषी के सम्पन्न होने पर धर्म देशना देकर उठ जाते हैं तब दूसरी पौरुषी में गौतम गणधर या अन्य गणधर धर्मोपदेश करते हैं। उसके द्वारा 1. तीर्थङ्कर का शारीरिक श्रम दूर होता है 2. शिष्य के गुणों का प्रकटन होता है 3. तत्त्व-निरूपण में किसी तरह का विसंवाद न होने से श्रोता गण में गुरु-शिष्य के प्रति विश्वास पैदा होता है और 4 आचार्य - शिष्य की शालीन परम्परा का