Book Title: Padarohan Sambandhi Vidhiyo Ki Maulikta Adhunik Pariprekshya Me
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith
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स्थविर पदस्थापना विधि का पारम्परिक स्वरूप...67 का अन्तर्भाव हो जाता है। स्थविरकल्पी गच्छवासी होते हैं। स्थविरकल्प सम्बन्धी विस्तृत चर्चा संल्लेखना-विधि के अधिकार में करेंगे। स्थविर पदग्राही के लिए आवश्यक योग्यताएँ
स्थविर पद पर आरूढ़ होने वाला श्रमण किन विशेषताओं से समन्वित होना चाहिए? इसकी स्वतन्त्र चर्चा तो दृष्टिगत नहीं होती है, परन्तु पूर्वोल्लिखित परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि वह सफल नियोजक, रत्नत्रय का सम्यक् अनुपालक, वैराग्योत्पादक शक्ति सम्पन्न, मधुर स्वभावी, धर्मरत एवं उपदेशकुशल होना चाहिए।
प्राचीनसामाचारी के उल्लेखानुसार आचार्य पदस्थापना के लिए निर्दिष्ट मुहूर्त के उपस्थित होने पर स्थविरपद की अनुज्ञा विधि भी कर सकते हैं क्योंकि इस विधि को भी आचार्यपदानुज्ञा की भांति सम्पन्न करने का निर्देश है। यद्यपि कछ नियम भिन्न भी हैं तथापि अधिकांश क्रिया-विधि आचार्य स्थापना के समान ही की जाती है।
यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि आचार्यपदानुज्ञा करने वाले गुरु के द्वारा ही स्थविरपद की अनुज्ञा की जानी चाहिए। स्थविर पदस्थापना विधि का ऐतिहासिक अनुशीलन
जो संयम पतित साधकों को पुन: संयम धर्म में स्थिर करता है वह स्थविर कहा जाता है।
जैन इतिहास में स्थविर का स्वरूप कहाँ, किस रूप में प्राप्त है? इस दृष्टिकोण से अनुसन्धान किया जाए तो तद्विषयक विवेचन आचारचूला, स्थानांग, समवायांग, ज्ञाताधर्मकथा, अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपाति दशा, विपाक, व्यवहार आदि में निम्नानुसार परिलक्षित होता है।
__आचारचूला में भिक्षाचरी मुनि के द्वारा आहार ले आने के पश्चात सहवर्ती मुनियों में उसे वितरित करने हेतु अनुज्ञा लेने के उद्देश्य से स्थविर शब्द का उल्लेख है। यहाँ सात पदस्थों के नामों में स्थविर को चौथा स्थान दिया गया है। इसी तरह शय्या संस्तारक हेतु प्रतिलेखना, विहार यात्रा आदि के सन्दर्भ में भी स्थविर शब्द उल्लिखित है।18
स्थानांगसूत्र में देवता द्वारा मनुष्य लोक में आने के कारणों में से एक कारण स्थविर आदि पदस्थ मुनियों को पूर्व भव के परम उपकारी होने से उन्हें