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गणावच्छेदक पदस्थापना विधि का प्राचीन स्वरूप...81 • अगीतार्थ को ओघनियुक्ति सामाचारी का प्रशिक्षण देकर भेजना चाहिए।
• अनागाढ़ योगवाही अपने संकल्प को स्थगित कर सकता है इसलिए भेजना चाहिए।
• क्षपक को पारणा कराकर ‘कार्य पूर्ण न हो, तब तक तपस्या नहीं करनी है' ऐसी शिक्षा देकर भेजना चाहिए।
• सेवा करने वाला मुनि वहाँ रहने वाले साधुओं को स्थापना कुल बताकर फिर वहाँ से प्रस्थान कर दें। दृढ़ शरीरी बाल मुनि एवं वृद्ध मुनि साथ में जायें।
इस प्रकार क्षेत्र प्रेक्षा हेतु गणावच्छेदक को प्रधान एवं पूर्ण योग्य माना गया है।
गणावच्छेदक को जिनकल्प वहन का भी अधिकार है। भाष्यकार के मत से पाँच व्यक्ति जिनकल्प धारण कर सकते हैं उनमें गणावच्छेदक का नाम भी निहित है। वे पाँच नाम हैं - आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणावच्छेदका ___ गणावच्छेदक के कतिपय नियम आचार्य एवं उपाध्याय के तुल्य हैं। जैसे – हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में उन्हें कम से कम दो साधुओं को साथ रखकर कुल तीन ठाणा से विचरण करना कल्पता है और कुल चार ठाणा से चातुर्मास करना कल्पता है। इससे कम साधुओं से रहना गणावच्छेदक के लिए निषिद्ध है। अत: वे दो ठाणा से विचरण नहीं कर सकते और तीन ठाणा से चातुर्मास नहीं कर सकते। ___ समीक्षात्मक दृष्टि से गणावच्छेदक आचार्य के नेतृत्व में रहते हुए कार्यवाहक पद का निर्वाह करता है तथापि इनके साथ के साधुओं की संख्या आचार्य से अधिक कही गयी है। इसका मुख्य कारण यह है कि इनका कार्य क्षेत्र अधिक होता है। सेवा, व्यवस्था आदि कार्यों में अधिक साधु साथ में हों तो उन्हें सुविधा रहती है।10 ___ संक्षेप में कहा जाए तो संघीय व्यवस्था, उपकरण संग्रह, क्षेत्र प्रतिलेखना, जिनकल्प स्वीकार एवं धर्म अभिवृद्धि की दृष्टि से गणावच्छेदक की आवश्यकता अपरिहार्य है।