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वाचना दान एवं ग्रहण विधि का मौलिक स्वरूप...47 में रहता है। जब सम्यक्त्व का प्रकटन होता है तब जीव को अपूर्व सुख की प्राप्ति होती है फलत: वह शुभाशय वाला व्यक्ति शुभ का अनुबन्ध करता है।108
इस प्रकार वाचनादान मोक्ष प्राप्ति का अनन्तर हेतु है। इससे आध्यात्मिक उत्कर्ष में इस पद स्थापना की उपादेयता एवं आवश्यकता भी सिद्ध हो जाती है।
यदि वाचनाचार्य पद की उपादेयता प्रबन्धन की दृष्टि से देखी जाए तो यह श्रुत प्रबन्धन, शिक्षा प्रबन्धन आदि की अपेक्षा से अधिक उपयोगी हो सकता है। वाचनाचार्य, वाचना दान के माध्यम से पूर्वश्रुत का संवर्धन करते हैं और वर्तमान परिस्थितियों में उसकी प्रासंगिकता समझाते हुए उसे जनोपयोगी बनाते हैं। उनके द्वारा प्राचीन ग्रन्थों एवं ग्रन्थ भण्डारों का अवलोकन एवं व्यवस्थापन होने से उनका प्रमार्जन एवं निरीक्षण हो जाता है तथा प्राचीन पुस्तकों को व्यवस्थित करने से उनकी उम्र भी बढ़ती है। शिक्षा किस प्रकार दी जाए, कैसी दी जाए, देने वाला कैसा हो, लेने वाला कैसा हो आदि से वर्तमान शिक्षा प्रणाली के एक सुव्यवस्थित रूप देने में सहयोग प्राप्त हो सकता है। इसी के साथ शिक्षक वर्ग एवं विद्यार्थी वर्ग को भी शिक्षा दान और शिक्षा ग्रहण हेतु सम्यक दिशा प्राप्त हो सकती है।
नव्य युग की समस्याओं के सन्दर्भ में यदि वाचनाचार्य पद का परिशीलन किया जाए तो सर्वप्रथम तो वाचनाचार्य वाचना प्रदान कर समाज में फैल रहे भौतिक अन्धकार में आध्यात्मिक ज्ञान का प्रकाश करते हैं। वर्तमान पीढ़ी में जिनवाणी एवं जिनधर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करते हैं, जिससे भौतिकता एवं आध्यात्मिकता के बीच सन्तुलन स्थापित होता है। एकाग्रता बढ़ने से मानसिक स्थिरता बढ़ती है। मानसिक स्थिरता वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास की गति को द्विगुणित कर सकती है। इससे अहंकार, क्रोध, प्रमाद, आलस्य आदि का नाश होता है जिससे कि मानसिक तनाव, रोगादि में वृद्धि नहीं होती तथा सम्यक् ज्ञान के द्वारा आचरण पक्ष भी मजबूत बनता है। वर्तमान में शिक्षा के नाम पर हो रहा व्यवसायीकरण, गुरु-शिष्यों के बीच बढ़ती दूरियाँ, गुरुजनों के प्रति बढ़ती असम्मान भावना, अयोग्य लोगों को उच्च Degree प्रदान करने से हो रहा सामाजिक पतन आदि समस्याओं में वाचना दान का शास्त्रीय स्वरूप नवीन आलोक प्रदान कर सकता है।