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56...पदारोहण सम्बन्धी विधि रहस्यों की मौलिकता आधुनिक परिप्रेक्ष्य में पूर्व निर्दिष्ट स्वरूप के आधार पर इतना कहा जा सकता है कि जो मुनि स्वयं तप-नियम-संयमादि का दृढ़ प्रतिपालक हो और वैयावृत्य में उद्यमशील हो वह प्रवर्तक पद का योग्याधिकारी है।
प्राचीनसामाचारी के अनुसार आचार्य पदस्थापना के लिए निर्दिष्ट शुभ मुहूर्त में प्रवर्तकपद की अनुज्ञा देनी चाहिए, क्योंकि यह विधि-प्रक्रिया इसमें कथित आचार्यपदानुज्ञा की भांति सम्पन्न की जाती है।
यहाँ प्रसंगवश यह भी ज्ञातव्य है कि आचार्यपद की अनुज्ञा करने वाला गुरु ही प्रवर्तक पद की अनुज्ञा करें। प्रवर्तक पदस्थापना विधि का ऐतिहासिक विकास क्रम
जैन वाङ्मय में सामान्यतया सात पदों के नामोल्लेख प्राप्त होते हैं। इनमें आचार्य एवं उपाध्याय के पश्चात तीसरे क्रम पर प्रवर्तक को स्थान दिया है।
यदि प्रवर्तक पद को लेकर इतिहास के गर्भ में झांकें तो हमें इस पद के नाम निर्देश एवं इसका वैशिष्ट्य आदि मूलागमों, आगमिक व्याख्याओं एवं पूर्वकालीन (विक्रम की 10वीं शती पर्यन्त) ग्रन्थों में स्पष्टतया मिलता है।
प्रथम अंग आचारचूला में भिक्षाटक मनि द्वारा सहवर्ती मनियों को आहार देने की अनुज्ञा लेने निमित्त प्रवर्तक शब्द का उल्लेख हुआ है।10 यहाँ सातों पदवीधरों के नामों का निर्देश है। उसका आशय यह है कि इनमें से किसी भी पदस्थ की निश्रा में रहते हुए उनकी अनुमतिपूर्वक ही अन्य मुनियों को आहार प्रदान करना चाहिए।
इसी तरह प्रवर्तक आदि ज्येष्ठ मुनियों के शय्या-संस्तारक योग्य भूमि की प्रतिलेखना करने का विधान बतलाया गया है।11
स्थानांगसूत्र में देवता द्वारा मनुष्य लोक में आने के कारणों में से एक कारण प्रवर्तक आदि पदस्थ मुनियों को उपकारक भाव की दृष्टि से वन्दन करना बतलाया है।12 यहाँ वन्दन के अर्थ में प्रवर्तक शब्द का अंकन है। अन्य आगमों में इसी तरह के और भी उल्लेख देखे जाते हैं।
आगमिक व्याख्या साहित्य के अन्तर्गत व्यवहारभाष्य में प्रवर्तक को गणचिन्तक कहा है और वहाँ उसके स्वरूप मात्र का ही निदर्शन किया है।13