Book Title: Nyayavatarvartik Vrutti
Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Shantyasuri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
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प्रस्तावना.।
"सासर जीवे जमाली! जंन कयाह णासी, णो कयाविन भवति,ण कयाविण भविस्सर, भुर्विच भवाय भविस्साय,धुवे णितिए सासए अक्खए अब्बए अवड़िए जिये। असासए जीवे जमाली!जनेराए भवित्ता तिरिक्खजोणिए भवर तिरिक्खजोणिए भषिचा मणुस्से भवा मणुस्से भविता देवे भषा ।" भगवती ९.६.३८७ । १.४.४२.।।
तीनों कालमें ऐसा कोई समय नहीं जब कि जीव न हो । इसी लिये जीव शाश्वत ध्रुव नित्य कहा जाता है । किन्तु जीव नारक मिट कर तिर्यच होता है और तियेच मिट कर मनुष्य होता है इस प्रकार जीव क्रमशः नाना अवस्थाओंको प्राप्त करता है अत एव उन अवस्थाओंकी अपेक्षासे जीव अनिस्य अशाश्वत अध्रुव है । अर्थात् अवस्थाओं के नाना होते रहने पर मी जीवत्व कमी लुप्त नहीं होता पर जीवकी अवस्थाएँ लुप्त होती रहती हैं। इसीलिये जीव शाश्वत और अशाश्वत है।
इस व्याकरण में औपनिषद ऋषिसम्मत आत्माकी नित्यता और भौतिकवादिसम्मत आत्माकी अनित्यताके समन्वयका सफल प्रयन है । अर्थात् भगवान् बुद्धके अशाश्वतानुच्छेदवादके स्थानमें शाचतोच्छेदवादकी स्पष्टरूपसे प्रतिष्ठा की गई है। (६)जीवकी सान्तता-अनन्तता।
जैसे लोककी सान्तता और निरन्तताके प्रश्नको भ० बुद्धने अव्याकृत बताया है वैसे जीवकी सान्तता-निरन्तताके प्रश्न के विषयमें उनका मन्तव्य स्पष्ट नहीं है। यदि कालकी अपेक्षा से सान्तता-निरन्तता विचारणीय हो तब तो उनका अव्याकृत मत पूर्वोक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है। परंतु द्रव्यकी दृष्टि से या देशकी-क्षेत्रकी दृष्टि से या पर्याय-अवस्थाकी दृष्टिसे जीवकी सान्तता-निरन्तताके विषयमें उनके विचार जाननेका कोई साधन नहीं है । जब कि भगवान् महावीरने जीवकी सान्तता-निरन्तता का मी विचार स्पष्टरूपसे किया है क्योंकि उनके मतसे जीव एक खतन्त्र तत्त्वरूपसे सिद्ध है । इसीसे कालकृत नित्यानित्यताकी तरह द्रव्य-क्षेत्र-भाव की अपेक्षासे उसकी सान्तता-अनन्तता मी उनको अभिमत है । स्कंदक परिणाजक का मनोगत प्रश्न जीवकी सान्तता अनन्तताके विषयमें था उसका निराकरण भगवान महावीरने इन शब्दोंमें किया है.. "जेवियदया! जाव समन्ते जीवे अणंते जीवे तस्सवि यणं एयमडे-एवं बालु जाव दम्बमोणं एगे जीवे समंते, बेरमो पंजीये असंखेजपएसिए मसंवेज पएसोगारे मास्थिपूणसे अंते, काळभो पंजीवे नकयाविन भासि जाव निमस्थि पुण सेमंते, भाषमोणं जीवे मणंता णाणपजवा अर्णता दंसणपजवा मणंता परितपजवा मणंता मगुरुलायपजवा नरिथ पुण से अंते ।" भगवती २.१.९० । सारांश यह है कि एक जीव व्यक्ति
द्रव्यसे सान्त। क्षेत्रसे सान्त। कालसे अनन्त और
भावसे अनन्त है। इस प्रकार जीव सान्त मी है और अनन्त मी है ऐसा भ० महावीरका मन्तव्य है। इसमें कालकी दृष्टिसे और पर्यायोंकी अपेक्षासे उसका कोई अन्त नहीं । किन्तु वह ब्रम्प और क्षेत्रकी अपेक्षा से सान्त है । ऐसा कह करके भ• महावीरने मारमाके "अणोरणीयान् महतो महीयान"
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