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प्रमेयनिरूपण ।
साहित्यके संस्कृतभाषानिबद्ध ग्रन्थोंमें भी वह सर्वप्रथम है । जिस प्रकार बादरायणने उपनिषदोंका दोहन करके ब्रह्मसूत्रोंकी रचनाके द्वारा वेदान्त दर्शनको व्यवस्थित किया है उसी प्रकार उमाखातिने आगमोंका दोहन करके तत्त्वार्थसूत्रकी रचनाके द्वारा जैन दर्शनको व्यवस्थित करनेका प्रयत किया है । उसमें जैन तत्वज्ञान, आचार, भूगोल, खगोल, जीवविद्या, पदार्थविज्ञान इत्यादि नाना प्रकारके विषयोंके मौलिक मन्तव्योंको मूल आगमोंके आधारपर' सूत्रबद्ध किया है । और उन सूत्रोंके स्पष्टीकरणके लिये खोपज्ञ भाष्यकी भी रचना की है । वा० उमाखातिने तत्त्वार्थ सूत्रमें आगमोंकी बातोंको संस्कृत भाषामें व्यवस्थित रूपसे रखनेका प्रयत्न तो किया ही है किन्तु उन विषयोंका दार्शनिक ढंगसे समर्थन उन्होंने कचित् ही किया है। यह कार्य तो उन्होंने अकलंकादि समर्थ टीकाकारोंके लिये छोड दिया है । अत एव तत्वार्थसूत्रमें प्रमेयतख और प्रमाणतत्वके विषयमें सूक्ष्म दार्शनिक चर्चा या समर्थनकी आशा नहीं करना चाहिए । तथापि उसमें जो अल्प मात्रामें ही सही, दार्शनिक विकासके सीमाचिन्ह दिखाई देते हैं उनका निर्देश करना आवश्यक है । प्रथम प्रमेयतत्वके विषयमें चर्चा की जाती है।
[१] प्रमेयनिरूपण ६१. तव, अर्थ, पदार्थ, तत्वार्थ
तत्त्वार्थसूत्र और उसका खोपज्ञ भाष्य यह दार्शनिक भाष्ययुगकी कृति है । अत एव वाच. कने उसे दार्शनिकसूत्र और भाष्यकी कोटिका ग्रन्थ बनानेका प्रयत्न किया है । दार्शनिकसूत्रोंकी यह विशेषता है कि उनमें खसंमत तत्वोंका निर्देश प्रारंभमें ही सत्, अर्थ, पदार्थ, या तस्त्र जसे शब्दोंसे किया जाता है । अत एव जैन दृष्टि से मी उन शब्दोंका अर्थ निश्चित करके यह बताना आवश्यक हो जाता है कि तत्त्व कितने हैं ! वैशेषिक सूत्रमें द्रव्यादि छः को पदार्थ कहा है (१.१.४) किन्तु अर्थसंज्ञा द्रव्य, गुण और कर्मकी ही की गई है (८. २.. ३)। सत्ता संबंधके कारण सत् ऐसी पारिभाषिक संज्ञा भी इन्ही तीनकी रखी गई है (१.१.८)। न्यायसूत्रगत प्रमाणादि १६ तत्त्वोंको भाष्यकारने सत् शब्दसे व्यवहृत किया है। सांख्योंके मतसे प्रकृति और पुरुष ये दो ही तत्त्व माने गये हैं।
वाचकने इस विषयमें जैनदर्शनका मन्तव्य स्पष्ट किया कि तस्त्र, अर्थ, तस्वार्थ और पदार्थ एकार्थक हैं। और तत्त्वोंकी संख्या सात है। आगोंमें पदार्थकी संख्या ९ बताई गई है (स्था० सू० ६६५) जब कि वाचकने पुण्य और पापको बंधमें अन्तर्भूत करके सात तत्वोंका ही उपादान किया है । यह वाचककी नई सूझ जान पडती है।
६२. सत्का खरूप
वा० उमाखातिने नयोंकी विवेचनामें कहा है कि "सर्वमेकं सदविशेषात्" (तस्वार्थभा० १.३५) । अर्थात् सब एक है क्यों कि समी समानभावसे सत् हैं। उनका यह कथन भाग्वेदके दीर्घतमा ऋषिके 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' (१.१६४.४६) की तथा उपनिषदोंके
देखो, 'तस्वार्थसूत्र जैमागमसमन्वय'। "
स बलु षोडशधा म्यूहमुपदेक्ष्यते" यायमा० ....। 'सतविधोऽखत्वम् ।...२ "एते वा सक्षपदार्थाखरवानि ।" "तरवार्थअडानम्" १.२.।
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